स्मृति मन्दिर समर्पण विडियो
यह वर्ष, योगदा सत्संग शाखा आश्रम, राँची में, श्री श्री परमहंस योगानन्द स्मृति मन्दिर के समर्पण की, 25वीं वर्षगाँठ का है। यह मन्दिर आश्रम की सीमा में उस पावन स्थल पर स्थित है जहाँ पर गुरुदेव श्री श्री परमहंस योगानन्द को ठीक सौ वर्ष पहले 1920 में अमेरिका जाने का अंतर्दर्शन हुआ। इस अंतर्दर्शन का वर्णन योगी कथामृत में करते हुए परमहंसजी लिखते हैं-
“अमेरिका! निश्चय ही यह लोग अमेरिकी हैं।” मेरे मन में यही विचार उठा जब मेरी अंतर्दृष्टि के सामने से पाश्चात्य चेहरों की लंबी कतार गुज़रने लगी।
राँची में अपने विद्यालय के भंडार गृह में कुछ धूलि-धूसरित पेटियों के पीछे मैं ध्यानमग्न बैठा था। बच्चों के बीच व्यस्तता के उन वर्षों में एकांत स्थान मिलना बहुत कठिन था!
ध्यान में वह दृश्य चलता रहा। एक विशाल जनसमूह मेरी ओर आतुर दृष्टि से देखते हुए मेरी चेतना के मंच पर अभिनेताओं की तरह मेरे सामने से गुज़र रहा था।
यह एक युगादि क्षण था जिसने परमहंसजी को अमेरिका प्रस्थान हेतु अग्रसर किया और तत्पश्चात भारत के प्राचीन विज्ञान ‘क्रियायोग’ के विश्वव्यापी प्रसार हेतु सेल्फ़-रियलाइजे़शन फ़ेलोशिप की स्थापना हुई। इस अंतर्दर्शन व उसके बाद के घटनाक्रम का विस्तृत वर्णन योगी कथामृत में उल्लिखित है। स्मृति मन्दिर समर्पण कार्यक्रम पर वाइएसएस/एसआरएफ़ की तीसरी अध्यक्ष व संघमाता श्री श्री दया माता ने कहा, “हम अपने प्रियतम प्रभु को धन्यवाद करते हैं कि उन्होंने गुरुदेव को सत्य का अपना संदेश वाहक बना कर भेजा। गुरुदेव के ईश्वर के प्रति गहन प्रेम के विचार में और उनके निस्वार्थ जीवन जो उन्होंने पूर्णत: दूसरों के हित में जिया, के स्मरण में हम इस श्री श्री परमहंस योगानन्द स्मृति मन्दिर का लोकार्पण करते हैं।”
जिस स्थान पर सौ वर्ष पूर्व परमहंसजी को अंतर्दर्शन हुआ वह एक छोटा सा भंडार गृह था। काफी समय तक इस स्थान पर बना ध्यान मन्दिर, दैनिक ध्यान के पवित्र स्थल की तरह, उपयोग होता था। वर्षों की समर्पित योजना के बाद इस संगमरमर की संरचना का निर्माण किया गया।
मन्दिर का न केवल एक गहन आध्यात्मिक महत्व है, बल्कि यह भव्य शिल्प सौंदर्य से युक्त है। आश्रम के मध्य में जड़े रत्न की तरह यह त्रुटिहीन धवल उत्कृष्ट कृति और इसकी स्वस्फूर्त सादगी प्रभावित करती है — नीलाभ आकाश की पृष्ठभूमि में संगमरमर का गुंबद, रंग बिरंगे फूलों की झालर जड़े हरित प्रांगण से घिरा मन्दिर। दीवाली के समय सैकड़ों मोमबत्तियों से सजा मन्दिर अद्भुत भव्यता धारण कर लेता है। प्रत्येक आगंतुक इस पुण्यस्थल के सुरुचिपूर्ण वैभव से चमत्कृत होता है और स्पष्ट शांति भाव को अनुभव करता है; इसके प्रभावशाली सौंदर्य पर दृष्टिपात किए बिना वहाँ से कोई नहीं गुज़र सकता। वेदी पर गुरुजी का आदम-कद भव्य चित्र, जीवन और प्रेम से भरा हुआ लगता है, जो मन्दिर में प्रवेश करने वालों पर निरंतर बरसता है — प्रवेश द्वार पर अंकित शब्दों का जीवंत प्रमाण — “केवल प्रेम मेरा स्थान ले सकता है।” यह शब्द उस दिव्य जीवन का स्मरण कराते हैं जो प्रेमावतार का प्रतीक है, ताकि हम भी इस प्रेम को अपने जीवन में प्रकट कर सकें।
इस प्रतिष्ठित, पूर्णत: संगमरमर, अष्टकोणीय मन्दिर का लोकार्पण, 22 मार्च, 1995 को, स्वामी आनंदमय गिरि ने, जो परमहंस योगानन्दजी के प्रत्यक्ष शिष्य व वाइएसएस/एसआरएफ़ के अति सम्मानित संन्यासी थे, 20 मार्च से 26 मार्च, 1995 तक, सप्ताह भर चले कार्यक्रम, स्मृति मन्दिर समर्पण संगम के दौरान किया। कार्यक्रम में लगभग 1,200 भक्तों ने भाग लिया।
समर्पण के दिन श्री दया माताजी ने कहा, “हमारी इच्छा अपने प्रिय गुरुदेव व उनके द्वारा 75 वर्ष पूर्व, यहां राँची में देखे गए अंतर्दर्शन जिसने विश्वव्यापी मिशन को गतिमान किया, के सम्मान में सुयोग्य स्मारक बनाने की थी। आज वह इच्छा पूर्ण हुई। आज हम उस ईश्वर व मानव प्रेमी, उन्नत गुरु श्री श्री परमहंस योगानन्द को सम्मानित करते हैं।… यह सुंदर संगमरमर का मन्दिर एक दर्शनीय अनुस्मारक का कार्य करेगा, कि गुरुदेव इस मिट्टी पर जिए और चले, ताकि मानव जाति जीवन का सच्चा अर्थ सीख सके; और ताकि हम भी ईश्वर से प्रेम कर सकें, ईश्वर से वार्तालाप कर सकें और उनके नित्य-नवीन प्रेम व आनंद के बोध में रह सकें। हम इस श्री श्री परमहंस योगानन्द स्मृति मन्दिर का लोकार्पण करते हैं, जहाँ भक्त व्यक्तिगत रूप से आकर मौन ध्यान में बैठ सकें तथा ईश्वर व गुरुदेव से वार्ता कर सकें।”
पुण्य स्थानों की बड़ी महिमा होती है, इसलिए कि वह उस स्थान पर रहने व ध्यान करने वाले सन्त के स्पंदनों को युगों तक धारण किए रहते हैं। गुरुजी कहते थे, “जब आप अति आध्यात्मिक स्थान पर जाते हैं, तो आप उन्नत करने वाले स्पंदनों को ग्रहण करते हैं और वे आप में बेहतर बदलाव लाएंगे। जहाँ महान् सन्तों ने निवास किया हो, उन स्थानों के तीर्थाटन का यही महत्व है।” असंख्य श्रद्धालु वर्षों से, इस पुण्य स्थान पर गुरुजी से विशेष वार्तालाप करने के, दिव्य अनुभव का सत्यापन करते हैं। ग्रहणशीलता की सीमा तक स्मृति मन्दिर वह सांत्वना, मार्गदर्शन और प्रेम देता है, जिसको प्रत्येक आत्मा खोज रही है।
यहाँ श्रद्धालुओं के कुछ विचार हैं जो 1995 में पहली बार स्मृति मन्दिर आए :
“वर्षों से इतने जाने पहचाने आश्रम में प्रवेश कर सुंदर संगमरमर का मन्दिर देखते ही हम रोमांचित हो गए। स्मृति मन्दिर शिल्प सौंदर्य का नमूना है। हमारे गुरुदेव का पीठासीन सुंदर चित्र, जीवन से भरा लगता है, उनकी प्रेममयी दृष्टि, पुण्य पीठ में प्रवेश करने वालों पर अनवरत आशीर्वाद उड़ेलती प्रतीत होती है।”
“ऐसा लगा गुरुजी मेरे सामने बैठे देख रहे हैं कि मैं कैसे ध्यान कर रहा हूँ।”
“राँची हमने पहले भी देखा है, लेकिन इस बार अंतर था। मध्य में स्थित है एक सभी ओर जालीदार पट युक्त सुंदर संगमरमर संरचना; जब आप इसे पहली बार देखते हैं तो विशाल गुंबद और घेरे हुए खंभों का बहुत भव्य रूप उभरता है। तत्पश्चात गुरुजी की विशाल चित्राकृति — जैसे गुरुजी आपका अभिनंदन करने के लिए, बस इसमें से निकलने ही वाले हैं। और मन्दिर के स्पंदनों के विषय में क्या कहूँ! ऐसा लगता है जैसे गुरुजी स्वयं अवतरित होकर वहाँ ठहर गए हैं।”
कुछ विचार उन श्रद्धालुओं के जो वर्षों से राँची आश्रम आ रहे हैं :
“मैं जैसे ही आश्रम के प्रांगण में कदम रखता हूँ ऐसा लगता है कि मैं सदा से यहाँ रहा हूँ। जब मैं स्मृति मन्दिर के शांत अवकाश में बैठता हूँ, तो यह मुझे कृतज्ञता से भर देता है कि मेरे गुरू ने इन शिक्षाओं को विश्व व मुझ तक पहुँचाने के लिए अपनी मातृभूमि का सुख त्याग कर पाश्चात्य जगत् का सामना किया।”
“यदि गुरुजी अपने बढ़ते बाल विद्यालय से संतुष्ट हो जाते, और यदि उन्हें उस भंडार गृह में वह अंतर्दर्शन न हुआ होता तो हमें यह दिन देखने को नहीं मिलता, जहाँ हजारों भक्त क्रियायोग के लाभ का आनंद ले रहे हैं।”
“मैं जब भी स्मृति मन्दिर में प्रवेश करता हूँ, मेरी समस्त समस्याएं व व्यग्रताएं मेरे अस्तित्व से निकल जाती हैं।”
“इस महान् स्मारक रूपी एक संस्था के आरंभ के लिए कितना विनम्र स्थल!”