गुरु पूर्णिमा 2013 पर श्री श्री मृणालिनी माता का संदेश

गुरु पूर्णिमा के पावन अवसर पर पूजनीय संघमाताजी का विशेष सन्देश। यह पर्व इस वर्ष 22 जुलाई को मनाया जा रहा है।

प्रिय आत्मन्,

22 जुलाई, 2013

भारत में युगों-युगों से भक्तों द्वारा गुरु को श्रद्धांजलि अर्पित करने की परम्परा रही है। गुरु, अर्थात् ईश्वर की खोज में लगी निष्ठावान आत्माओं को वापस उन तक लाने के लिये ईश्वर द्वारा भेजा गया दिव्य दूत। गुरु-पूर्णिमा के पावन दिवस पर, हमारे प्रिय गुरुदेव श्री श्री परमहंस योगानन्दजी को अपनी हार्दिक कृतज्ञता अर्पित करते हुए उस प्राचीन परम्परा में शामिल होना, हमें एक ऐसे सद्गुरु की शरण प्राप्त होने के अनमोल उपहार पर नये सिरे से मनन करने का अवसर प्रदान करता है, जो मानवीय चेतना से दिव्य चेतना में हमारा उत्थान कर सकते हैं। आत्मा की पूर्णता की खोज करते हुए, हमारा परिमित्त, इन्द्रिय-बद्ध मन इस जगत् की विविधताओं तथा हमारे अनुभवों पर माया के प्रभाव द्वारा अनेक विभिन्न दिशाओं में खींचा जाता है। परन्तु एक सद्गुरु की सहायता से, मार्ग सीधा एवं स्पष्ट हो जाता है, और हमारी अन्तिम विजय सुनिश्चित।

गुरुदेव ने हमें बताया है, “गुरु को सुनना एक कला है जो शिष्य को उसके सर्वोच्च लक्ष्य तक ले जायेगी।” अपने सर्वव्यापी प्रेम एवं ज्ञान द्वारा गुरु उस प्रत्येक आत्मा तक पहुंचते हैं जो उनके चरणों में शरण लेती है। हमारा काम है, एक नित्य गहन होते स्तर पर उन्हें सुनने की योग्यता विकसित करना, ताकि हम उनका मार्गदर्शन एवं आशीर्वाद पूर्णरूप से प्राप्त कर सकें। यदि हमारी एकाग्रता में कमी हो, तो उनके शब्दों से प्राप्त प्रेरणा हमारे दैनिक जीवन की व्यस्तताओं के बीच बड़ी आसानी से धूमिल हो जायेगी। तथापि, जब हम एकाग्र मन से स्वयं को उनके समक्ष रखते हैं और आंतरिक रूप से, उनके द्वारा दिये गये किसी एक भी मुक्तिदायी सत्य को आत्मसात् करते हैं, तो यह एक प्रेरणात्मक बल बन जाता है, गुरु की सहायता का एक माध्यम। यद्यपि, हमारा मानवीय विवेक भी उनका अनुसरण करने के हमारे प्रयासों में एक महत्त्वपूर्ण उपकरण है, यह अहं के पूर्वाग्रह के अधीन है — इसकी वरीयताओं और अतिसंवेदनशीलताओं के, जो उनकी मार्गदर्शक वाणी को सुनने की हमारी योग्यता को प्रभावित करती हैं। कभी कभी हमारा मन अपनी इच्छाओं को तार्किक आधार पर गुरु की इच्छा सिद्ध करना चाहता है, या “क्षुद्र अहं” के लिये जो कठिन होता है, उसका प्रतिरोध करता है। यदि हम एक खुले मन तथा विश्वास से भरे हृदय से सुने तो गुरु के साथ समरसता और तालमेल का एक गहन स्तर प्राप्त होता है। जब हम ईश्वर की अनुकम्पा और गुरु के प्रेम के आकर्षण के प्रति इस बोध के साथ अपनी प्रतिक्रिया देते हैं, कि वे केवल हमारा सर्वोच्च हित चाहते हैं, तो अहं का पक्षपाती आवरण विलीन होने लगता है। हम उनके रूपांतरकारी स्पर्श के प्रति अधिक लचीले बन जाते हैं, हमें स्वयं में जो परिवर्तन करना है उसके प्रति अधिक ग्रहणशील। विनम्रता एवं भक्ति के साथ उनके प्रति पूर्ण रूप से समर्पित होने में, हम गुरु की शक्ति को हमारी आत्मा के क्रम-विकास को द्रुत करने के लिये अबाधित रूप से काम करने की अनुमति देते हैं। हमारे सामने चुनौतीपूर्ण परिस्थितियाँ होने पर भी, हम उन्हें, हमें ईश्वर के और निकट ले जाने वाली शुद्धीकरण की प्रक्रिया के एक अंश के रूप में स्वीकार कर पाने के लिये अधिक योग्य हो जाते हैं।

गुरुदेव द्वारा सिखायी गयी पवित्र ध्यान-प्रविधियों के द्वारा, उन्होंने हमे उनसे सम्पर्क करने की — हमारी पूरी आत्मा से उन्हें सुनने की, सर्वाधिक प्रत्यक्ष साधन दिये हैं। जब चंचल विचार एवं भावनायें स्थिर हो जाती हैं, तब अहं के विक्षोभ समाप्त हो जाते हैं, और गुरु की उपस्थिति का अनुभव करने के लिये हमारी आत्मा का अंतर्धान जाग उठता है। जैसे ही हम उनकी अनन्त चेतना का स्पर्श करते हैं, हमारी ग्रहणशीलता बढ़ जाती है। हम उनके विचारों को एक ऐसी सुस्पष्टता से समझते हैं जो शब्दों के परे जाती है। यदि आप अपने सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ उन्हें सुनेंगे और विश्वासपूर्वक उनका अनुसरण करेंगे, तो ये प्रत्येक बाधा पर विजय प्राप्त करने में आपकी सहायता करेंगे जब तक कि आपका, अपनी आत्मा के दिव्य प्रियतम के साथ मिलन नहीं हो जाता। जय गुरु!


ईश्वर एवं गुरुदेव के दिव्य प्रेम में,

 
 

श्री श्री मृणालिनी माता

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