जाति : अपनी मूल धारणा में जाति कोई वंशानुगत सामाजिक स्थिति नहीं थी, बल्कि मनुष्य की प्राकृतिक क्षमताओं पर आधारित वर्गीकरण था। अपने क्रम-विकास में मनुष्य चार विभिन्न श्रेणियों से गुजरता है जिन्हें हिन्दू सन्तों ने नाम दिए हैं : शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय तथा ब्राह्मण। शूद्र मुख्यतः अपने शरीर की आवश्यकताओं एवं इच्छाओं को पूर्ण करने में रुचि रखता है; उसके क्रमविकास की अवस्था के अनुसार उसके लिए सर्वोत्तम कार्य शारीरिक श्रम है। वैश्य सांसारिक लाभ तथा अपनी इन्द्रियों की संतुष्टि के लिए महत्त्वाकांक्षी होता है; उसमें शूद्र की अपेक्षा अधिक रचनात्मक क्षमता होती है तथा वह एक किसान, व्यापारी, एक कलाकार या उसकी मानसिक ऊर्जा जहाँ भी परिपूर्णता पाए वही व्यवसाय खोजता है। क्षत्रिय, शूद्र एवं वैश्य अवस्थाओं की इच्छाओं की परिपूर्ति में अनेक जन्म बिताने के पश्चात्, जीवन के वास्तविक अर्थ को खोजना प्रारंभ कर देता है; वह अपनी बुरी आदतों को जीतने का प्रयास करता है, अपनी इन्द्रियों को नियंत्रित करना चाहता है, और जो कुछ उचित हो वही करना चाहता है। क्षत्रिय, व्यवसाय में अच्छे शासक, राजनीतिज्ञ एवं योद्धा होते हैं। ब्राह्मण ने अपनी निम्न प्रकृति को पार कर लिया होता है, आध्यात्मिक कार्यों में उसकी स्वाभाविक रुचि होती है, तथा ईश्वर को जानने वाला होता है, इस प्रकार, दूसरों की मुक्ति में सहायता तथा उन्हें शिक्षा प्रदान करने में समर्थ होता है।
कारण शरीर : मूलत, मनुष्य आत्मा के रूप में कारण शरीर है। उसका कारण शरीर उसके सूक्ष्म एवं भौतिक शरीरों के लिए विचार उत्पत्ति का स्थान है। कारण शरीर, सूक्ष्म शरीर के उन्नीस तत्त्वों तथा भौतिक शरीर के सोलह मूल भौतिक तत्त्वों के अनुरूप पैंतीस विचार तत्त्वों से बना है।
कारण जगत : पदार्थ के भौतिक जगत् (परमाणु, प्रोटॉन, इलेक्ट्रॉन्स) और प्राणिक अणु (lifetrons) के सूक्ष्म ज्योतिर्मय जगत् के पीछे कारण या धारणात्मक, विचाराणुओं (thoughtrons) का जगत् है। भौतिक एवं सूक्ष्म ब्रह्माण्डों से आगे ऊपर उठने के लिए जब व्यक्ति की पर्याप्त उन्नति हो चुकी होती है, तब वह कारण जगत् में निवास करता है। कारण जगत् के जीवों की चेतना में, भौतिक एवं सूक्ष्म ब्रह्माण्ड अपने विचार सत्त्व में घुल जाते हैं, जो कुछ भौतिक मानव अपनी कल्पना में कर सकता है, कारण मनुष्य उसे वास्तविकता में कर सकता है — एकमात्र सीमा स्वयं विचार है। अन्त में, मनुष्य सभी स्पंदनीय साम्राज्यों के परे, सर्वव्यापक परमात्मा में मिल जाने हेतु आत्मा के अन्तिम आवरण — अपने कारण शरीर — को उतार फेंकता है।
चक्र : योग में, मस्तिष्क एवं मेरुदण्ड में जीवन एवं चेतना के सात गुप्त केन्द्र, जो मनुष्य के भौतिक एवं सूक्ष्म शरीर को अनुप्राणित करते हैं। इन केन्द्रों को चक्र (पहिए) के रूप में संदर्भित किया गया है, क्योंकि प्रत्येक में एकाग्रित ऊर्जा एक केन्द्र की भाँति रहती है, जिससे प्राण-प्रदायक प्रकाश एवं ऊर्जा प्रसारित होते हैं। ऊर्ध्वगामी क्रम में यह चक्र हैं — मूलाधार चक्र (मेरुदण्ड के आधार में); स्वाधिष्ठान चक्र (मूलाधार से दो इंच ऊपर); मणिपुर चक्र (नाभि के पीछे); अनाहत चक्र (हृदय के पीछे) : विशुद्ध चक्र (गर्दन के मूल में) : आज्ञा चक्र परम्परागत रूप भ्रूमध्य में स्थित, वास्तव में ध्रुवता के अनुसार सीधा मेडुला से जुड़ा हुआ। (देखें — मेडुला एवं आध्यात्मिक नेत्र) एवं सहस्रार (खोपड़ी के सबसे ऊपर के भाग में)।
सात चक्र दिव्य रूप से आयोजित निकास अथवा ‘रुद्ध द्वार’ हैं जिनमें से आत्मा, शरीर में नीचे उतरी है तथा इन्हीं में से गुज़र कर इसे ध्यान की प्रक्रिया द्वारा पुनः ऊपर उठाना होता है। सात क्रमशः स्तरों से आत्मा ब्रह्माण्डीय चेतना में प्रवेश करती है। सातों खुले या ‘जाग्रत’ प्रमस्तिष्क-मेरुदण्डीय केन्द्रों (cerebrospinal centres) में से होते हुए अपने सचेतन ऊर्ध्वगामी मार्ग से गुज़रती हुई, आत्मा अनन्त के राजमार्ग पर यात्रा करती है, वह सच्चा पथ जिसके द्वारा ईश्वर से पुनः मिलने के लिए आत्मा को वापस लौटना होगा।
योग साहित्य में सामान्यतः नीचे के छः केन्द्रों को ही चक्र के रूप में समझा जाता है, तथा सहस्रार को अलग से एक सातवाँ केन्द्र माना जाता है। सभी सातों केन्द्रों को प्रायः कमल के रूप में निर्दिष्ट किया जाता है। जैसे-जैसे आध्यात्मिक जाग्रति में प्राण एवं चेतना मेरुदण्ड में ऊपर की ओर उठते हैं, तो इनकी पंखुड़ियाँ खुल जाती हैं अथवा ऊपर को उठ जाती हैं।
चित्त : अंतर्ज्ञानीय भावना; चेतना का एकत्रीकरण, जिसमें अहंकार, बुद्धि तथा मानस (मन या इन्द्रिय चेतना) अन्तर्निहित हैं।
क्राइस्ट – जीसस की सम्मानजनक उपाधि : जीसस क्राइस्ट। यह शब्द सृजन में ईश्वर की सार्वभौमिक बुद्धिमत्ता (जो कभी-कभी ब्रह्माण्डीय क्राइस्ट या अनन्त क्राइस्ट के रूप में सन्दर्भित किया जाता है) को भी व्यक्त करता है, या इसका उपयोग उन महान् गुरुओं के सन्दर्भ में किया जाता है, जिन्होंने उस दिव्य चेतना के साथ एकत्व प्राप्त कर लिया हो। (ग्रीक शब्द क्रिस्टोस का अर्थ है “अभिषिक्त,” जैसा कि हिब्रू में शब्द मसीहा है।) क्राइस्ट चेतना और कूटस्थ चैतन्य भी देखें।
क्राइस्ट केन्द्र (कूटस्थ केन्द्र) : कूटस्थ या आज्ञा चक्र, भ्रूमध्य में, ध्रुवीय रूप से मेडुला से सीधा जुड़ा हुआ; इच्छाशक्ति एवं एकाग्रता तथा कृष्ण चेतना या कूटस्थ चैतन्य का केन्द्र; आध्यात्मिक नेत्र का स्थान।
क्राइस्ट चैतन्य/कृष्ण चैतन्य : ‘क्राइस्ट’ या ‘कृष्ण चैतन्य’ संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त ईश्वर की प्रक्षेपित चेतना है। ईसाई धर्मग्रन्थों में इसे ‘एकमात्र प्रजात पुत्र’ (Only begotten son) कहा गया है, ईश्वर परमपिता का सृष्टि में एकमात्र पवित्र प्रतिबिम्ब; हिन्दू धर्मग्रन्थों में इसे कूटस्थ चैतन्य या तत् कहा जाता है, परमात्मा का ब्रह्माण्डीय बोध जो सृष्टि में सर्वव्यापक हैं। यह सार्वभौमिक चेतना है, ईश्वर से ऐक्य, कृष्ण, जीसस तथा अन्य अवतारों द्वारा प्रकट की गयी चेतना। महान् सन्त एवं योगी इसे समाधि — ध्यान की अवस्था के रूप में जानते हैं। जिसमें उनकी चेतना सृष्टि के प्रत्येक कण में प्रज्ञा के साथ एक हो जाती है, वे संपूर्ण ब्रह्म को अपने शरीर की भाँति अनुभव करते हैं। देखें — त्रिदेव।
एकाग्रता की प्रविधि : योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया के द्वारा योगदा सत्संग पाठों में सिखाई जाने वाली एकाग्रता की प्रविधि (हंसः प्रविधि)। यह प्रविधि, ध्यान भंग करने वाली सभी वस्तुओं से, वैज्ञानिक तरीके से मन को हटा कर उसे एक समय में एक वस्तु पर केन्द्रित करने में सहायक है। इस प्रकार, यह ध्यान, ईश्वर पर एकाग्रता के लिए अनमोल है। हंसः प्रविधि, क्रियायोग के विज्ञान का एक आवश्यक अंग है।
चेतना की अवस्थाएँ : मानव चेतना में मनुष्य तीन अवस्थाओं का अनुभव करता है : जाग्रत अवस्था, निद्रावस्था तथा स्वप्न अवस्था। परन्तु वह अपनी आत्मा, अधिचेतनावस्था का अनुभव नहीं करता, तथा ईश्वर का भी अनुभव नहीं करता। एक ईश्वर-प्राप्त व्यक्ति इसे अनुभव करता है। जैसे एक नश्वर मानव अपने पूरे शरीर के बारे में चैतन्य रहता है, इसी प्रकार ईश्वर-प्राप्त व्यक्ति पूरे ब्रह्माण्ड के बारे में, जिसे वह अपना शरीर अनुभव करता है, चैतन्य रहता है। कूटस्थ चैतन्य की अवस्था से परे ब्रह्माण्डीय चेतना की अवस्था है, अर्थात् स्पन्दनीय सृष्टि से परे ईश्वर की पूर्ण चेतना के साथ तथा दृश्यमान जगत् में ईश्वर की व्यक्त सर्वव्यापकता के साथ एकात्मता का अनुभव।
ब्रह्माण्डीय चेतना : सृष्टि से परे पूर्ण, परब्रह्म। ईश्वर के साथ समाधि-ध्यान की एकात्मता की अवस्था जो स्पंदनकारी सृष्टि में एवं उससे परे दोनों में है। देखें — त्रिदेव।
ब्रह्माण्डीय भ्रम : देखें — माया।
ब्रह्माण्डीय ऊर्जा : देखें — प्राण।
ब्रह्माण्डीय प्रबुद्ध स्पन्दनः देखें — ओम्।
ब्रह्माण्डीय ध्वनि : देखें — ओम् ।
दर्शन – “पवित्र दृश्य,” जैसे किसी के गुरु के; अर्थात, एक ईश्वर-साक्षात्कार प्राप्त व्यक्ति के दर्शन से प्राप्त आशीर्वाद।
धर्म : नैतिकता के शाश्वत नियम जो संपूर्ण सृष्टि को चलाते हैं; मनुष्य का अन्तर्निहित कर्त्तव्य है कि वह इन नियमों से सामंजस्य करके जीए। देखें — सनातन धर्म।
दीक्षा : आध्यात्मिक दीक्षा, संस्कृत के मूल शब्द दीक्ष् से, स्वयं को समर्पित करना। देखें — शिष्य एवं क्रियायोग।
शिष्य : एक आध्यात्मिक आकांक्षी जो गुरु के पास ईश्वर को जानने के लिए आता है, तथा इस उद्देश्य से गुरु के साथ एक शाश्वत आध्यात्मिक सम्बन्ध स्थापित करता है। योगदा सत्संग सोसायटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप में, गुरु शिष्य सम्बन्ध क्रियायोग की दीक्षा द्वारा स्थापित होता है। देखें — गुरु एवं क्रियायोग।
जगन्माता : ईश्वर का वह पक्ष जो सृष्टि में सक्रिय है; लोकातीत सृष्टिकर्त्ता की शक्ति या सामर्थ्य। दिव्यता की इस अभिव्यक्ति के अन्य अलंकरण हैं : प्रकृति, ओम्, पवित्र आत्मा, विराट बुद्धिशील स्पंदन। माँ के रूप में ईश्वर की व्यक्तिगत अभिव्यक्ति, जिसमें परमेश्वर के प्रेम एवं दयालुता के गुण समाहित हैं।
हिन्दू धर्मग्रन्थ सिखाते हैं कि ईश्वर दोनों हैं, सृष्टि में व्याप्त एवं सृष्टि से परे, साकार एवं निराकार। उन्हें एक पूर्ण ब्रह्म के रूप में; या उनके किसी एक प्रकट शाश्वत रूप में जैसे कि प्रेम, ज्ञान, परमानन्द, प्रकाश; एक इष्ट देवता के रूप में; या किसी धारणा जैसे कि परमपिता, माता, मित्र के रूप में भी खोजा जा सकता है।
ध्यान : ईश्वर पर एकाग्रता। इस शब्द का प्रयोग सामान्य रूप से एकाग्रता को अन्तर्मुखी करने तथा ईश्वर के किसी पक्ष पर एकाग्र करने की किसी प्रविधि के अभ्यास को निर्दिष्ट करने हेतु होता है। विशेष अभिप्राय में ध्यान को ऐसी प्रविधियों के सफल अभ्यास के अन्तिम परिणाम के रूप में इंगित किया जाता है : अन्तर्ज्ञानात्मक बोध द्वारा भगवान् का प्रत्यक्ष अनुभव। पतंजलि के द्वारा वर्णित अष्टांग योग का यह सप्तम चरण (ध्यान) है, केवल वही व्यक्ति इसे पा सकता है जिसने अपने अन्तर में एकाग्रता को स्थिर कर लिया हो जिससे वह पूर्णतः बाहरी विश्व के ऐंद्रिक प्रभावों द्वारा विचलित नहीं होता। गहनतम ध्यान में व्यक्ति योग मार्ग के आठवें अंग : समाधि का, ईश्वर के साथ संपर्क एवं एकात्मता की अनुभूति करता है। (देखें — योग)