क्रियायोग के लाभ

श्री श्री परमहंस योगानन्द के लेखन तथा व्याख्यानों से उद्धृत :

परमहंस योगानन्द in Lake Shrine 1950

क्रियायोग, धर्म का सच्चा अनुभव प्रदान करता है

“यदि आप ध्यान करते हैं तो आपका जीवन आध्यात्मिक चेतना को प्रतिबिंबित करेगा। मेरी पुस्तक [योगी कथामृत] के प्रकाशन के बाद से, यही मेरा उद्देश्य है। मैं धर्मशास्त्रीय सार देने के लिए नहीं आया था, बल्कि एक ऐसी प्रविधि जिसके द्वारा निष्ठावान लोग वास्तव में ईश्वर को जान सकते हैं, उनके बारे में अनुमान लगा सकते हैं…क्रिया का अभ्यास धर्म का वास्तविक अनुभव देता है, जिसे सिर्फ ईश्वर के बारे में बात करके नहीं देखा जा सकता है। जीसस ने कहा : ‘तुम मुझे क्यों कहते हो, प्रभु, प्रभु, और जो मैं कहता हूँ वह करते नहीं?’

“जब क्रियायोग द्वारा मैं अपना आध्यात्मिक नेत्र खोलता हूँ, तो पूरी दुनिया मेरी चेतना से दूर हो जाती है, और ईश्वर मेरे साथ होते हैं। और क्यों नहीं? मैं उनकी संतान हूँ। सेंट इग्नेशियस ने कहा, ‘ईश्वर उन इच्छुक हृदयों को ढूँढते हैं, जिन्हें वह अपने कीमती उपहार दे सकें।…’ यही सबसे सुंदर है, और यही मेरा विश्वास है। प्रभु उन इच्छुक हृदयों को ढूँढते हैं, जिन्हें वह अपने उपहार दे सकें। वह हमें सब कुछ देने को तैयार हैं, लेकिन हम ग्रहणशील होने का प्रयास करने को तैयार नहीं हैं।”

— परमहंस योगानन्द,

Journey to Self-realization

स्वयं को ईश्वर के आशीर्वादों के लिए उन्मुक्त रखना

prayer-devotion

“भक्ति के साथ प्रार्थना ईश्वर के स्वतंत्र रूप से बहने वाले आशीर्वादों के लिए स्वयं को उन्मुक्त रखने का एक अद्भुत साधन है, जो सभी उपकारों के अनंत स्रोत के लिए मानव जीवन की एक आवश्यक कड़ी है। लेकिन प्रार्थना को प्रभावी होने में एक लंबा समय लगता है जब मन बाहर भटक रहा होता है। इसीलिए क्रियायोग ध्यान का एक घंटा चौबीस घंटे की साधारण प्रार्थना से अधिक प्रभाव प्रदान कर सकता है।”

“जो लोग क्रिया की तकनीक का थोड़े समय के लिए भी गहन अभ्यास करते हैं, और परिणामस्वरूप शांति में लंबे समय तक ध्यान में बैठते हैं, वे पाते हैं कि उनकी प्रार्थना का बल दोगुना, तिगुना, सौ गुना अधिक शक्तिशाली हो जाता है। यदि कोई मौन के आंतरिक गढ़ में प्रवेश करता है और उनकी उपस्थिति की प्रार्थना और आह्वान के साथ ईश्वर की वेदी के समक्ष पूजा करता है, तो वह शीघ्र आ जाते हैं। जब शरीर की संवेदी सतह और उसके आस-पास से चेतना वापस खींच ली जाती है और आत्मबोध के मेरुमस्तिष्कीय तीर्थों में केंद्रीकृत होती है, तो यह प्रार्थना करने का सबसे प्रभावी समय होता है।”

— परमहंस योगानन्द,

The Second Coming of Christ: The Resurrection of the Christ Within You

क्रियायोग — ईश्वर बोध का सर्वोच्च साधन

[भगवद्गीता IV:29]

भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने क्रियायोग की चर्चा दो बार की है। एक श्लोक में वे कहते हैं : “अपान वायु में प्राणवायु के हवन द्वारा और प्राणवायु में अपान वायु के हवन द्वारा योगी प्राण और अपान, दोनों की गति को रुद्ध कर देता है और इस प्रकार वह प्राण को हृदय से मुक्त कर लेता है और प्राणशक्ति पर नियंत्रण प्राप्त कर लेता है।” तात्पर्य यह है कि “योगी फेफड़ों और हृदय की कार्यशीलता को शान्त कर प्राणशक्ति की उस अतिरिक्त आपूर्ति की सहायता से शरीर में होने वाले ह्रास को रोक देता है; और अपान को नियंत्रण में कर वह शरीर में वृद्धत्व लाने वाले परिवर्तनों को भी रोक देता है। इस प्रकार ह्रास और वृद्धि, दोनों को रोककर योगी प्राण-नियंत्रण सीख लेता है।”

बाबाजी ने लाहिड़ी महाशय से कहा था : “इस 19वीं शताब्दी में जो क्रियायोग मैं विश्व को तुम्हारे माध्यम से दे रहा हूँ, यह उसी विज्ञान का पुनरुत्थान है जो श्रीकृष्ण ने सहस्राब्दियों पहले अर्जुन को दिया था और जो बाद में पतंजलि, ईसामसीह, सेंट जॉन, सेंट पॉल और ईसामसीह के अन्य शिष्यों को प्राप्त हुआ।”

— परमहंस योगानन्द,

‘योगी कथामृत’

“क्रियायोग ईश-सम्पर्क की उच्चतम विधि है। ईश्वर के लिए मेरी अपनी खोज में मैंने सम्पूर्ण भारत की यात्रा की, और उसके अनेक महान् गुरुओं के मुख से ज्ञान की बातें सुनी। इसलिए मैं इस सत्य का प्रमाण दे सकता हूँ कि योगदा सत्संग (सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप) की शिक्षाओं में उच्चतम सत्य और वैज्ञानिक प्रविधियाँ हैं जो ईश्वर और महान् गुरुओं द्वारा मानव-जाति को दी गई हैं।

“क्रिया के बाद के प्रभाव अपने साथ अत्यधिक शान्ति और आनन्द लाते हैं। क्रिया से प्राप्त आनन्द, समस्त सुखदायक भौतिक संवेदनाओं के एकत्रित आनन्द से अधिक होता है। ‘एन्द्रिय-संसार से अनासक्त, योगी आत्मा में निहित नित्य नवीन आनन्द को अनुभव करता है। उसकी आत्मा का परब्रह्म परमात्मा में दिव्य मिलन हो जाने से, वह अक्षय आनन्द को प्राप्त करता है।’ (भगवद्गीता IV:21)। ध्यान में अनुभव किए उस आनन्द से मैं हजारों निद्राओं के विश्राम को प्राप्त करता हूँ। उन्नत क्रियायोगी के लिए निद्रा वस्तुतः अनावश्यक हो जाती है।

“जब क्रियायोग द्वारा भक्त समाधि में प्रवेश करता है, जिसमें उसके नेत्र, श्वास और हृदय निश्चल हो जाते हैं, तो एक अन्य संसार दिखाई देने लग जाता है। श्वास, ध्वनि, और नेत्रों की हलचल इस संसार से सम्बन्धित है। परन्तु जिस योगी का श्वास पर नियंत्रण है वह आनन्दप्रद सूक्ष्म और कारण लोकों में प्रवेश कर सकता है और वहाँ ईश्वर के संतों के साथ सम्पर्क कर सकता है, या ब्रह्माण्डीय चेतना में प्रवेश करके ईश्वर से सम्पर्क कर सकता है। योगी अन्य किसी वस्तु में रुचि नहीं रखता।

“जो मैंने कहा है उसे स्मरण रखते हुए, जो कोई भी प्रत्येक अन्य वस्तु को कम महत्त्व देगा, वह निश्चित रूप से ईश्वर तक पहुँचेगा।”

— परमहंस योगानन्द,

‘मानव की निरन्तर खोज’

बुरी मानसिक आदतों तथा कर्म से मुक्ति पायें

“आपकी प्रत्येक आदत मस्तिष्क में एक विशिष्ट “खाँचा,’ या रास्ता बनाती है। ये ढर्रे आपको एक ख़ास तरह से व्यवहार करने पर बाध्य करते हैं, प्रायः आपकी इच्छा के विरुद्ध। आपका जीवन उन खाँचों के अनुसार चलता है जिनका स्वयं आपने अपने मस्तिष्क में सृजन किया है। इस तरह से देखा जाए तो आप एक मुक्त व्यक्ति नहीं हैं; आप अपनी स्वजनित आदतों के शिकार प्रायः हैं। आप किस हद तक एक कठपुतली हैं, यह इस पर निर्भर करता है कि ये ढर्रे कितने पक्के हैं। परन्तु आप उन बुरी आदतों के आदेशों को निष्प्रभावित कर सकते हैं। कैसे? इनके विपरीत अच्छी आदतों के मस्तिष्कीय ढर्रे बनाकर। और आप ध्यान द्वारा बुरी आदतों के खाँचों को पूर्णतः मिटा सकते हैं। इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। तथापि, सत् संगति और अच्छे परिवेश के बिना आप अच्छी आदतों को संवर्धित नहीं कर सकते। और आप अच्छी संगति और ध्यान के बिना बुरी आदतों से स्वयं को मुक्त नहीं कर सकते।…

“प्रत्येक बार जब आप ईश्वर का गहन ध्यान करते हैं, तो आपके मस्तिष्क के खाँचों में लाभकारी परिवर्तन होते हैं। मान लीजिए आप आर्थिक रूप से, या नैतिक रूप से, अथवा आध्यात्मिक रूप से असफल हैं। गहरे ध्यान के माध्यम से, ‘मैं और मेरे पिता एक हैं,’ का प्रतिज्ञापन करते हुए, आप जान जाएंगे कि आप ईश्वर की संतान हैं। उस आदर्श को अपना लें। तब तक ध्यान करें जब तक आप एक परम शान्ति का अनुभव नहीं करते। जब आनन्द आपके हृदय का भेदन करता है, तो समझिये कि ईश्वर ने आपके द्वारा उन्हें भेजे जा रहे प्रसारण का उत्तर दिया है; वे आपकी प्रार्थनाओं एवं सकारात्मक विचारों का प्रत्युत्तर दे रहे हैं। यह एक विशिष्ट और निश्चित विधि है :

“सबसे पहले इस विचार पर ध्यान लगाओ, ‘मैं और परमपिता एक हैं,’ इसके साथ ही परम शांति और उसके बाद हृदय में परम आनन्द को अनुभव करने का प्रयास करो। जब आनन्द का अनुभव होने लगे तो कहो कि, ‘हे परमपिता तू मेरे साथ है। मैं अपने भीतर निहित शक्ति को यह आदेश देता हूँ कि वह मेरे मस्तिष्क की गलत आदतों तथा दुष्प्रकृति के पुराने बीजों को नष्ट कर दे।’ ध्यानावस्था में ईश्वर की शक्ति यह कार्य सम्पन्न कर देगी। अपने भीतर से इस भावना को जीत लो कि तुम सीमित क्षमता वाले मात्र स्त्री या पुरुष हो; इस बात को निश्चित रूप से जान लो कि तुम ईश्वर की संतान हो। उसके बाद में निश्चय के साथ इस बात को दोहराओ तथा प्रार्थना करो कि : ‘मैं अपने मस्तिष्क की कोशिकाओं को बदल जाने का आदेश देता हूँ तथा बुरी आदतों की उन लकीरों को नष्ट करने का आदेश देता हूँ जिन्होंने मुझे अपनी कठपुतली बना डाला है। हे प्रभु! इन सभी को अपने दिव्य प्रकाश से भस्म कर दो।’ जब तुम योगदा सत्संग की ध्यान करने की प्रविधियों का, विशेषकर क्रियायोग का अभ्यास करने लगोगे तो स्वयं ही ईश्वर के उस दिव्य प्रकाश को अपने अन्दर हर प्रकार से शुद्धिकरण करता पाओगे।”

— परमहंस योगानन्द,
दिव्य प्रेम-लीला

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