राज योग : ईश्वर के साथ एकता का ‘राजकीय’ या सर्वोच्च मार्ग। यह वैज्ञानिक ध्यान को ईश्वर प्राप्ति के सर्वोच्च साधन के रूप में सिखाता है, तथा अन्य सभी प्रकार के योगों से उच्चतम आवश्यक विधियों को सम्मिलित करता है। योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़ -रियलाइजे़शन फे़लोशिप की राजयोग शिक्षाएँ क्रियायोग ध्यान
की नींव पर आधारित मन, शरीर एवं आत्मा के संपूर्ण विकास की ओर ले जाने वाली जीवन शैली की रूपरेखा हैं। देखें — योग।
राजर्षि जनकानन्द (जेम्स जे लिन्न) : परमहंस योगानन्द के उन्नत शिष्य, और उनके प्रथम उत्तराधिकारी के रूप में योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़ रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के अध्यक्ष और आध्यात्मिक प्रमुख, जब तक कि उनका देहावसान 20 फरवरी, 1955 में हुआ। श्री लिन्न ने 1932 में परमहंसजी से पहले क्रिया योग की दीक्षा प्राप्त की; उनकी आध्यात्मिक उन्नति इतनी तीव्र थी कि गुरु उन्हें प्रेमपूर्वक ‘सन्त लिन्न’ कहा करते थे, जब तक कि उन्हें 1951 में राजर्षि जनकानन्द की संन्यासी उपाधि प्रदान की गई।
पुनर्जन्म : एक सिद्धान्त जिसके अनुसार, मनुष्यों को क्रम विकास के नियम की विवशता के कारण प्रगतिशील उच्चतर जीवनों में बारम्बार जन्म लेना पड़ता है — गलत कर्मों एवं इच्छाओं से यह रुक जाता है तथा आध्यात्मिक प्रयत्नों से यह उन्नत होता है — जब तक कि आत्मसाक्षात्कार एवं ईश्वर से एकता नहीं हो जाती। इस प्रकार नश्वर चेतना की सीमाओं एवं अपूर्णताओं से ऊपर उठकर, आत्मा अनिवार्य पुनर्जन्म से सदा के लिए मुक्त हो जाती है। ‘वह जो विजयी होगा उसे मैं अपने ईश्वर के मन्दिर में स्तंभ बनाऊँगा और उसे फिर से बाहर आने की आवश्यकता नहीं।’ (प्रकाशित वाक्य 3:12 बाइबल)।
ऋषि : दृष्टा, ऐसे उत्कृष्ट व्यक्ति जो कि दिव्य ज्ञान को प्रकट करते हों, विशेषकर प्राचीन भारत के प्रबुद्ध सन्त, जिन्हें वेदों का प्राकट्य अन्तर्ज्ञानात्मक ढंग से हुआ।
साधना : आध्यात्मिक अनुशासन का मार्ग। गुरु द्वारा अपने शिष्यों के लिए प्रदान किया गया विशेष ध्यान अभ्यास एवं निर्देश, जिनका निष्ठापूर्वक अनुसरण करते हुए वे ईश्वर ज्ञान प्राप्त करते हैं।
समाधि : सन्त पतंजलि द्वारा वर्णित अष्टांग योग मार्ग का सर्वोच्च चरण। समाधि तब प्राप्त होती है जब ध्यान-कर्ता, ध्यान की प्रक्रिया (जिसके द्वारा अन्तर्मुखता से मन को इन्द्रियों से हटा लिया जाता है) तथा ध्यान का ध्येय (ईश्वर) एक हो जाते हैं। परमहंस योगानन्दजी ने स्पष्ट किया है कि “ईश्वर संपर्क की प्रारंभिक अवस्थाओं (सविकल्प समाधि) में भक्त की चेतना परब्रह्म में विलीन हो जाती है; उसकी प्राण शक्ति शरीर से हट गई होती है, वह ‘मृत’ या निश्चल एवं कठोर प्रतीत होता है। योगी अपनी ‘निलंबित प्राण संचालन’ (suspended animation) की शारीरिक अवस्था के प्रति पूर्णतः जागरूक होता है। फिर भी जैसे जैसे वह उच्चतर आध्यात्मिक अवस्थाओं (निर्विकल्प समाधि) की ओर बढ़ता है, वह ईश्वर के साथ शारीरिक रूप से स्थिर हुए बिना तथा अपनी सामान्य जाग्रत अवस्था में और प्रबल सांसारिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए भी, ईश्वर से संपर्क करता है।” दोनों अवस्थाओं की विशेषता परमात्मा के नित्य नवीन आनन्द के साथ एकात्मता है, लेकिन निर्विकल्प समाधि का अनुभव मात्र अति उन्नत गुरुजनों को ही होता है।
सनातन धर्म : अक्षरशः ‘शाश्वत धर्म’ यह नाम वैदिक शिक्षाओं के प्रमुख अंश को दिया गया है, जो यूनान के लोगों द्वारा सिन्धु नदी पर बसने वाले लोगों को इण्दुस या हिन्दू नाम देने के बाद हिन्दू धर्म कहलाने लगा। देखें — धर्म।
शैतान : अक्षरशः यहूदी भाषा में ‘विरोधी’ शैतान एक सचेतन और स्वतंत्र सार्वभौमिक शक्ति है जो प्रत्येक वस्तु एवं प्रत्येक व्यक्ति को सीमितता और ईश्वर से पृथकता की अनाध्यात्मिक चेतना से भ्रमित रखती है। इस कार्य को पूरा करने हेतु शैतान माया (ब्रह्माण्डीय भ्रम) तथा अविद्या (व्यक्तिगत भ्रम, अज्ञान) के शस्त्र का प्रयोग करता है। देखें — माया एवं अविद्या।
सत्-चित्-आनंद : संस्कृत में ईश्वर की अभिव्यक्ति जो कि ब्रह्म की मौलिक प्रकृति को नित्य विद्यमान या सत्य (सत्), नित्य चैतन्य (चित्), और नित्य नवीन आनंद (आनंद) के रूप में दर्शाती है।
सत्-तत्-ओम् : सत्, सत्य, पूर्ण ब्रह्म, आनन्द, तत्, सार्वभौमिक प्रज्ञा या चेतना; ओम्, ब्रह्माण्डीय बौद्धिक सृजनात्मक स्पन्दन, ईश्वर के लिए प्रतीक शब्द। देखें — ओम् तथा त्रिदेव।
आत्मन् (Self) : आत्मन् मनुष्य के दिव्य सत्त्व को निर्दिष्ट करता है जो सामान्य आत्मभाव, जो मानवीय व्यक्तित्व या अहंकार है, से भिन्न है। आत्मा व्यक्तिगत ब्रह्म है, जिसकी मौलिक प्रकृति सत्, चित्, तथा नित्य नवीन आनन्द है। आत्मन् या जीवात्मा मनुष्य के प्रेम, ज्ञान, शान्ति, साहस, दया तथा अन्य सभी दिव्य आन्तरिक गुणों का मूल स्रोत है।
आत्मसाक्षात्कार : परमहंस योगानन्दजी ने आत्मसाक्षात्कार को निम्नलिखित ढंग से परिभाषित किया है: “आत्मसाक्षात्कार का अर्थ है-तन, मन एवं आत्मा में जानना कि हम ईश्वर की सर्वव्यापकता के साथ एक हैं; कि हमें प्रार्थना नहीं करनी है कि यह हमारे पास आए, कि हम न केवल सदैव इसके समीप हैं, अपितु ईश्वर की सर्वव्यापकता हमारी सर्वव्यापकता है; यह कि हम उनके अब भी वैसे ही अंश हैं जैसे कि हम सदैव रहेंगे। हमें केवल यही करना है कि हम अपनी जानकारी सुधारें।”
सेल्फ़-रियलाइज़ेशन : सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप, को इंगित करने का संक्षिप्त ढंग, एक सोसाइटी जिसे परमहंस योगानन्दजी ने स्थापित किया था, जिसका परमहंसजी अपनी अनौपचारिक वार्ताओं में प्रायः प्रयोग किया करते थे; उदाहरणार्थ, ‘सेल्फ़ रियलाइज़ेशन शिक्षाएँ’ , ‘सेल्फ-रियलाइज़ेशन का मार्ग’, ‘लॉस एंजिलिस में सेल्फ़ रियलाइज़ेशन का मुख्यालय’ : इत्यादि।
सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप : श्री श्री परमहंस योगानन्दजी द्वारा सन् 1920 में संयुक्त राज्य में संस्थापित सोसाइटी (तथा भारत में सन् 1917 में योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया के नाम से संस्थापित) जो मानवता की भलाई एवं सहायता हेतु क्रियायोग की ध्यान प्रविधियाँ तथा आध्यात्मिक सिद्धांतों का विश्व व्यापी प्रचार करती है। इसका अन्तर्राष्ट्रीय मुख्यालय, मातृ केन्द्र, लॉस एंजिलिस कैलिफ़ोर्निया में है। परमहंस योगानन्द ने स्पष्ट किया था कि सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप का नाम इंगित करता है : “आत्म साक्षात्कार द्वारा ईश्वर का संग, तथा सत्य को खोजने वाली सभी आत्माओं के साथ मित्रता।”
शंकराचार्य, स्वामी : कभी-कभी आदि (सर्वप्रथम) शंकराचार्य (शंकर + आचार्य, ‘शिक्षक’) भी कहे जाते हैं; भारत के सर्वोच्च सुविख्यात दार्शनिक। उनकी तिथि अनिश्चित है, अनेक विद्वान उन्हें आठवीं या नवीं शताब्दी के प्रारंभ में निर्धारित करते हैं। उन्होंने ईश्वर की एक नकारात्मक कोरी कल्पना के रूप में व्याख्या नहीं की अपितु एक सकारात्मक, शाश्वत, सर्वव्यापक, नित्य नवीन आनन्द के रूप में की। शंकराचार्य ने प्राचीन स्वामी सम्प्रदाय का पुनर्गठन किया तथा चार महान मठों (आध्यात्मिक शिक्षा के सन्यासी केन्द्रों) की स्थापना की। जिनके प्रमुख धर्म-प्रचार परम्परा में जगद्गुरु श्री शंकराचार्य की पदवी ग्रहण करते हैं। जगद्गुरु का अर्थ है ‘विश्व का शिक्षक।’
सिद्ध : अक्षरशः ‘वह व्यक्ति जो सफल है।’ वह व्यक्ति जिसने आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर लिया हो।
आत्मा (Soul) : व्यक्तिगत ब्रह्म। आत्मा अथवा जीवात्मा (आत्मन्) मनुष्य एवं जीवन के सभी जीवंत रूपों की सच्ची एवं अमर प्रकृति है; यह केवल अस्थायी रूप से कारण, सूक्ष्म एवं स्थूल शरीरों के चोलों को धारण करती है। आत्मा की प्रकृति ब्रह्म है : नित्य विद्यमान, नित्य चैतन्य तथा नित्य नवीन आनन्द।
आध्यात्मिक नेत्र : कूटस्थ केन्द्र (आज्ञा चक्र) भ्रूमध्य में अन्तर्ज्ञान तथा सर्वव्यापक प्रत्यक्ष ज्ञान का एकाकी नेत्र। गहन ध्यान करने वाला भक्त आध्यात्मिक नेत्र को एक सुनहरे प्रकाश के वृत में देखता है जो एक दूधिए नीले रंग के गोलक को घेरे हुए है, जिसके मध्य में एक पंचकोणीय सफेद तारा है। सूक्ष्म रूप से, ये रंग एवं रूप, क्रमशः सृष्टि के स्पन्दनमय क्षेत्र (ब्रह्माण्डीय प्रकृति, पवित्र ओम्); सृष्टि में ईश्वर का पुत्र या प्रज्ञा (कूटस्थ चैतन्य); तथा समस्त सृष्टि से परे स्पन्दनरहित परमात्मा (परमपिता परमेश्वर) का प्रतीक हैं। आध्यात्मिक नेत्र दिव्य चेतना की अंतिम अवस्थाओं का प्रवेशद्वार है। गहन ध्यान में, जब भक्त की चेतना आध्यात्मिक नेत्र का भेदन करके वहाँ प्रतीकात्मक तीनों क्षेत्रों में जाती है, वह क्रमशः निम्नलिखित अवस्थाओं को अनुभव करती है : अधिचेतन अवस्था या आत्मसाक्षात्कार की नित्य नवीन आनन्द की अवस्था, तथा ईश्वर से ओम् या पवित्र आत्मा के रूप में एकाकार; कूटस्थ चैतन्य, समस्त सृष्टि में ईश्वर की सार्वभौमिक प्रज्ञा के साथ एकात्मता; तथा ब्रह्माण्डीय चेतना, स्पन्दनकारी सृष्टि के अन्तर्गत और उनसे परे ईश्वर की सर्वव्यापकता से एकत्व। देखें — चेतना की अवस्थाएँ : अधिचेतनावस्था; कृष्ण चैतन्य/क्राइस्ट चैतन्य। यहेजकेल (43 : 1-2 बाइबल) के एक परिच्छेद की व्याख्या करते हुए परमहंस योगानन्दजी ने लिखा है : “माथे में (पूर्व में) दिव्य नेत्र के द्वारा योगी ओम् या शब्द को, समुद्र की दिव्य ध्वनि : प्रकाश के स्पन्दन जो सृष्टि की एकमात्र वास्तविकता को बनाते हैं, को सुनते हुए सर्वव्यापकता में ले जाता है।” यहेजकेल के शब्दों में : “ इसके पश्चात् वह मुझे दरवाज़े तक ले आया जो पूर्व मुखी था; तथा देखो इस्राइल के ईश्वर की महिमा पूर्व के मार्ग से आई तथा उसकी वाणी बहुत से जल की घरघरहाट सी थी, उसके तेज से पृथ्वी प्रकाशित हुई।”
जीसस ने भी आध्यात्मिक नेत्र के बारे में कहा था : “जब तुम्हारा एक नेत्र होगा तुम्हारा सारा शरीर प्रकाश से भर उठेगा।…इसलिए सावधान रहो कि वह प्रकाश जो तुम में है अन्धकार न बन जाए।” (लूका 11 : 34-35 बाइबल)
श्रीयुक्तेश्वर, स्वामी : स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि (सन् 1855-1936), भारत के ज्ञानावतार, ‘ज्ञान के अवतार’; परमहंस योगानन्दजी के गुरु तथा योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़-रियलाइजे़शन फ़ेलोशिप के क्रियाबान सदस्यों के परमगुरु। श्रीयुक्तेश्वर गिरिजी लाहिड़ी महाशयजी के शिष्य थे। उन्होंने लाहिड़ी महाशयजी के गुरु महावतार बाबाजी के कहने पर ‘दी होली साइंस’ (कैवल्य दर्शनम्) नामक पुस्तक लिखी जो कि हिन्दू एवं ईसाई धर्मग्रन्थों में अन्तर्निहित समानता की पुस्तक है, तथा परमहंस योगानन्दजी को उनके आध्यात्मिक विश्व मिशन क्रियायोग के प्रचार के लिए प्रशिक्षित किया। परमहंसजी ने श्रीयुक्तेश्वरजी के जीवन का प्रेमपूर्वक अपनी पुस्तक ‘योगी कथामृत’ में वर्णन किया है।
अधिचेतन मन : आत्मा की सर्वज्ञता की शक्ति जो सीधे सत्य का बोध कराती है; अन्तर्ज्ञान।
अधिचेतनावस्था : आत्मा की शुद्ध, अन्तर्ज्ञानात्मक, सर्वद्रष्टा, नित्य आनन्दपूर्ण चेतना। सामान्यतः यह कभी-कभी ध्यान में अनुभव की जाने वाली समाधि की सभी विभिन्न अवस्थाओं के संदर्भ में प्रयुक्त होती है, परन्तु विशेषकर समाधि की प्रथम अवस्था, जिसमें व्यक्ति अहं की चेतना से ऊपर उठ जाता है तथा स्वयं को आत्मा, ईश्वर के प्रतिबिम्ब के रूप में अनुभव करता है। इसके पश्चात् आत्मसाक्षात्कार की उच्च अवस्थाएँ प्रारंभ होती है : कूटस्थ चैतन्य (क्राइस्ट/कृष्ण चेतना) तथा ब्रह्माण्डीय चेतना की अवस्थाएँ।
स्वामी : भारत की सबसे प्राचीन सन्यास-परम्परा का एक सदस्य, जिसे आठवीं या प्रारंभिक नौवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्यजी ने पुनर्स्थापित किया था। स्वामी औपचारिक रूप से ब्रह्मचर्य का एवं सांसारिक बन्धनों एवं महत्त्वाकांक्षाओं से सन्यास का व्रत लेता है; वह स्वयं को ध्यान तथा अन्य आध्यात्मिक अभ्यासों, तथा मानवता की सेवा के लिए समर्पित करता है। आदरणीय स्वामी सम्प्रदाय को दस वर्गीकृत उपाधियों में बांटा गया है, जैसे कि गिरि, पुरी, भारती, तीर्थ, सरस्वती, एवं अन्य। स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरिजी एवं परमहंस योगानन्दजी गिरि (पर्वत) सम्प्रदाय से संबंधित थे। संस्कृत शब्द ‘स्वामी’ का अर्थ है “वह जो आत्मा (स्व) के साथ एक है।”