श्री दया माता जी द्वारा दिए गए प्रवचनों से संकलित जिन्हें सर्वप्रथम योगदा सत्संग पत्रिका में प्रकाशित किया गया था। श्री दया माता ने वर्ष 1955 से लेकर अपने ब्रह्मलोक प्रस्थान के समय, वर्ष 2010 तक, योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया एवं सेल्फ़-रियलाईज़ेशन फ़ेलोशिप के अध्यक्ष व संघ माता के पद को सुशोभित किया।
मानवजाति, अपने इतिहास के पूरे दौर में अनेकों संकटों से गुज़र चुकी है, और इस प्रकार की कठिन परिस्थितियाँ आती-जाती ही रहेंगी। यह संसार कालचक्र में बार-बार ऊपर और नीचे की तरफ निरंतर गतिशील रहता है। वर्तमान में मानव समाज की चेतना ऊर्ध्वमुखी हो रही है। अब से कुछ हज़ार वर्षों में चरम बिंदु पर पहुँचकर यह पुनः अधोमुखी हो जाएगी। प्रगति व अधोगति; इस द्वंद्वात्मक जगत् में यह उतार चढ़ाव निरंतर चलता रहता है।
क्रम-विकास के इन चक्रों के साथ-साथ सभ्यताओं का विकास व विनाश चलता रहता है। अतीत की अति उन्नत सभ्यताओं का स्मरण कीजिए, जैसे कि भारत व चीन में थीं। भारत की संस्कृत भाषा में रचे महा ग्रंथों से हमें झलक मिलती है कि जीसस के समय से हज़ारों वर्ष पहले, श्रीराम के समय में भी तकनीकी ज्ञान बहुत अधिक उन्नति प्राप्त कर चुका था जो उनके अद्भुत विमान से प्रमाणित होता है। और इससे भी अधिक मानसिक व आध्यात्मिक शक्तियाँ विद्यमान थीं, उस स्वर्णिम युग के वासियों के पास। अंत में उस सभ्यता का पतन होने लगा और कलयुग आ गया जिसमें उस प्रकार का विकास पूरी तरह लुप्त हो गया। इसका क्या कारण रहा होगा? कल ध्यान के पश्चात मैं इस पर विचार कर रही थी आज की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में।
वर्तमान संकट की प्रकृति
कालचक्र के अधोमुखी चरण के दौरान मनुष्य का अपने आध्यात्मिक पक्ष के बारे में ज्ञान घटते-घटते इतना कम हो जाता है कि जो कुछ भी उसमें उत्कृष्ट और उदात्त है, वह पूरी तरह लुप्त हो जाता है। फिर सभ्यता का अंत अधिक दूर नहीं होता। इसी तरह की प्रक्रिया कालचक्र की ऊर्ध्वगति के दौरान विभिन्न राष्ट्रों में घटती है। यदि मनुष्य का नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास ज्ञान व तकनीकी के विकास के साथ-साथ नहीं होता तो वह अर्जित की हुई शक्ति का दुरुपयोग अपने ही विनाश के लिए करने लगता है । वास्तव में आज जो वैश्विक संकट हमारे सामने है, उसकी यही प्रकृति है।
मनुष्य की चेतना इतनी विकसित हो चुकी है कि वह परमाणु की अद्भुत क्षमता के रहस्य की कुंजी प्राप्त कर चुका है। यह एक ऐसी शक्ति है जो एक दिन ऐसे ज़बरदस्त करतब कर दिखाएगी जिसकी कल्पना तक हम आज नहीं कर सकते। लेकिन हमने इस ज्ञान से क्या किया? प्राथमिकता विनाश के संयंत्र निर्मित करने को दी गई। आधुनिक तकनीकी उपकरणों ने हमें ऐसे अनेक, समय खर्च करने वाले क्रियाकलापों से राहत भी पहुँचाई है जो हमारे भौतिक अस्तित्त्व की रक्षा के लिए अनिवार्य थे। अक्सर, जो फुर्सत का समय मनुष्य को मिला उसका उपयोग मानसिक व आध्यात्मिक उन्नति के लिए नहीं किया गया बल्कि भौतिक व विलासिता के सुखों को बढ़ाने की अंतहीन दौड़ में लगाया गया। यदि मनुष्य केवल अपने भोग विलास के चारों ओर ही अपनी सोच विचार को सीमित कर दे — घृणा, ईर्ष्या, वासना, और लोभ जैसी भावनाओं से नियंत्रित होने के कारण — तो इसका अपरिहार्य परिणाम है, व्यक्तियों में द्वेष भाव, समाज में उथल-पुथल, और राष्ट्रों में संघर्ष। युद्धों ने कभी भी किसी समस्या का समाधान नहीं किया, बल्कि उनकी परिणति और भी वीभत्स संहार में हुई — एक युद्ध अगले युद्ध का कारण बनकर। जब मनुष्य अधिक विवेकशील, अधिक प्रेमपूर्ण मनुष्य में विकसित होगा, केवल तब ही संसार एक बेहतर स्थान बनेगा।
प्रकाश का आश्वासन
किसी ने मुझसे पूछा आजकल जो अवसाद और तमस का वातावरण व्याप्त है उसका सामना करने का सर्वश्रेष्ठ तरीका क्या है। मैंने बहुत गहराई से उत्तर प्राप्त करने के लिए प्रार्थना की और मेरे मन को भारत में 30 वर्ष पहले महावतार बाबाजी की गुफा के दर्शन के लिए जाते समय प्राप्त हुई दिव्य अनुभूति का स्मरण हो आया।
मैं और मेरे साथी गुफा पहुँचने के मार्ग पर स्थित एक छोटी सी झोपड़ी में रात व्यतीत कर रहे थे। मुझे एक अधिचेतन दृश्य दिखाई दिया जिसमें मैंने देखा कि संसार बहुत कठिन समय से गुज़रने जा रहा था, एक बड़े उथल-पुथल और अशांति और भयावह उलझन के दौर से। मैं रो पड़ी और मेरे साथियों ने मुझसे पूछा कि क्या कुछ बुरा हो गया था। उस समय मैं उस संदेश के विषय में कुछ भी चर्चा नहीं करना चाह रही थी किन्तु मैं जानती थी कि इसमे गहरा अर्थ छिपा हुआ था न केवल दया माता के लिए अपितु सारे संसार के लिए। उस दृश्य में मैंने एक बहुत बड़े काले बादल को ब्रह्मांड में व्याप्त होते हुए देखा। उसकी वह कालिमा बहुत भयावह दिख रही थी। किन्तु अगले ही पल मैंने परमात्मा के प्रेमपूर्ण, आनंदमय प्रकाश को देखा जो उस बादल से उमड़ रही काली घटाओं को पीछे धकेल रहा था और मैं समझ गई थी कि अंत में सब कुछ मंगलमय ही होगा।
हमलोग उस सूक्ष्म अनुभूति में जिसका संकेत दिया गया था उसी भयानक काल से गुज़र रहे हैं। ऐसा सभी देशों में हो रहा है
— युद्ध, अकाल, लाइलाज रोग, आर्थिक संकट, प्रलयंकारी आपदाएं, धार्मिक तथा नागरिक संघर्ष। सबसे बुरी बात यह है कि बढ़ती हुई अराजकता के साथ लोगों में डर और विवशता की भावना भी गहरी होती जा रही है।
यह आपदाएं हम पर क्यों आ रही हैं? हमारी स्थिति प्राचीन काल के मिस्र देश के लोगों से भिन्न नहीं है जिन्हें प्रभु की इच्छा की अवज्ञा करने के कारण प्लेग तथा अन्य प्रकोपों का सामना करना पड़ा था जैसा ग्रंथों में उल्लेख किया गया है। हम ऐसा सोचने लगते हैं कि इस प्रकार की घटनाएं केवल पुराने बाइबिल के युग में घटी थीं, किन्तु ऐसी बात नहीं है। हमारे यहाँ प्लेग जैसे प्रकोप आज भी हैं, अनेकों हैं। हम आँख मूंदकर सोच लेते हैं-“अरे यह हमारे अतिक्रमण का परिणाम नहीं हो सकता, यह मात्र एक संयोग है।” यह घटना संयोग नहीं है।
उचित आचरण के नियम ब्रह्मांडीय व्यवस्था का अंग हैं
अपने आपसे प्रश्न कीजिए,—”हम सत्य से कितनी दूर भटक चुके हैं?” “आप हत्या नहीं करेंगे; आप व्यभिचार नहीं करेंगे; आप चोरी नहीं करेंगे….” सत्य के यह नियम दस धर्म आदेशों में बताए गए हैं, जीसस के उपदेशों में और उससे भी बहुत पहले अष्टांग योग में पतंजलि के योग के पहले दो सिद्धांत हैं यम नियम, उचित आचरण के नियम जिन्हें हमें अंगीकार करना चाहिए और अनुचित आचरण के नियम जिनका हमें बहिष्कार करना चाहिए।
यह दैवी सिद्धांत हैं, ब्रह्मांड की पूर्णता का एक अंश मात्र, जिसे हमारे परमप्रिय परमात्मा ने मानवता के लिए निर्धारित किया है। उन्होंने सृष्टि को पूरी तरह वैज्ञानिक व गणितीय सिद्धांत से रचा है; इसका प्रत्येक पहलू सिद्धांत से नियंत्रित होता है। वह जीसस तथा प्राचीन भारतीय ऋषियों जैसी महान् आत्माओं के समक्ष अपने नियम व सिद्धांत हमारी जानकारी हेतु प्रकट करते हैं। उन्होंने यह नियम निर्धारित किए जिससे हमें अपने जीवन को परमेश्वर के प्रति उन्मुख रखते हुए उनके साथ तादात्म्य स्थापित करने के लिए मार्गदर्शन प्राप्त होता रहे।
युग-युग में परमेश्वर के प्रेमी सन्त दिव्य संदेश हमें देते रहे हैं। पुराने समय में हमारे पास मूसा के दिए हुए सिद्धांत थे; उदाहरण के लिए “आँख के बदले आँख, दांत के बदले दांत”। उन्होंने दिव्य नियम की अटलता को समझाया कि हम जो बोते हैं वही काटते है। शताब्दियों बाद जीसस अवतरित हुए, करुणा के महान् उपदेश को लेकर। उस युग में मानवता को क्षमा एवं दया के सबक सीखने की आवश्यकता थी।” आँख के बदले आँख और दांत के बदले दांत” के सिद्धांत पर अमल करते हुए क्योंकि लंबे समय से प्रतिशोध बढ़ता जा रहा था। जीसस क्राइस्ट ने क्षमा सिखाकर, मिलकर साथ रहने, दिव्य प्रेम करने पर सीधे बल देकर संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया। उनका प्रभाव अभी तक फैलता ही जा रहा है।
अब हम एक दूसरे युग में प्रवेश कर चुके हैं — एक ऐसा समय, परमहंसजी ने हमें बताया था, जब महावतार बाबाजी ने जीसस क्राइस्ट के साथ मिलकर वह कुछ भेजा है जिससे मानवता को क्राइस्ट के उद्देश्यों को मात्र सुनने या उस पर चर्चा करने या भारत के महान् ग्रंथ भगवद्गीता को केवल पढ़ने या उसका पाठ करने से आगे की सामर्थ्य प्राप्त होगी क्योंकि मानवता अब कहीं गहराई से कुछ खोज कर रही है।
यह “कुछ” है दिव्य प्रियतम के साथ सीधा संपर्क। हममें से कोई एक भी उस दिव्य जागृति से बहिष्कृत नहीं हैं। हम सभी परमात्मा की छवि हैं। हमारे वर्ण, जाति, हमारी आस्था चाहे जो भी हो हम सभी उनके अंश हैं; हममें से प्रत्येक के अंदर दिव्य स्फुलिंग विद्यमान है। धर्म ग्रंथ हमें बताते हैं — “आप नहीं जानते कि आप परमेश्वर के मंदिर हैं और परमात्मा की दिव्य शक्ति आपमें निवास करती है?”
परमात्मा की दिव्य शक्ति जो हमारे अंदर है वह क्या है? वह आत्मा है, हमारे अस्तित्त्व का सार तत्त्व। किन्तु हममें से कितने लोग अपने आपको दिव्य आत्मा समझते हैं? अधिकतर लोग इस सत्य से इतनी दूर तक भटक चुके हैं कि दिन में एक मिनट के लिए भी उन्हें दिव्यता का स्मरण नहीं होता। इंद्रियों के दुरुपयोग से उनकी चेतना कलुषित हो चुकी है। स्वाद की इंद्रिय मदिरा, लोभ, गलत खानपान की आदतों से कलुषित हो चुकी है। आँखें दिन-प्रतिदिन दिखने वाली भोग विलासिता से कलुषित हो चुकी हैं। कान हम जो बुरे शब्द सुनते हैं उनसे दूषित हो चुके हैं और जीभ तामसिक विचारों को व्यक्त करने वाले दुर्वचन बोलने के कारण दूषित हो चुकी है।
हम सांसारिक परिस्थितियों के निर्माता हैं
हम ही उन परिस्थितियों के निर्माता हैं जो आज हमारे सामने हैं। यह हमारे अनैतिक आचरण एवं जीवन के सभी क्षेत्रों में नैतिक मूल्यों की गिरावट का मिलाजुला परिणाम है।
सभ्यता का अस्तित्त्व सही व्यवहार के मानकों के पालन पर निर्भर करता है। यह हमारे अनैतिक आचरण एवं जीवन के सभी क्षेत्रों में नैतिक मूल्यों की गिरावट का मिलाजुला परिणाम है।
कभी-कभी अपनी सामान्य चेतना में रहते हुए हमारे लिए उन सत्यों की विशालता को समझना कठिन हो जाता है जो परमेश्वर के सुनियोजित ब्रह्मांड के पीछे निहित हैं। किन्तु वे परम सत्य हैं और उन अटल नियमों में कोई फेरबदल संभव नहीं है जिनके द्वारा प्रभु सारे विश्व और प्राणियों को धारण करते हैं। ब्रह्मांड में सभी वस्तुएं परस्पर जुड़ी हुई हैं। मनुष्य होने के नाते हमलोग न केवल परस्पर एक दूसरे के बंधु हैं बल्कि सारी प्रकृति से जुड़े हुए हैं, क्योंकि जीवन के सभी रूप एक ही मूल स्रोत से अभिव्यक्त होते हैं: परमेश्वर से। वह पूर्ण सामंजस्य है परंतु मनुष्य के बुरे विचार व कर्म उनकी इस संसार के लिए रची सामंजस्यपूर्ण योजना की अभिव्यक्ति पर विपरीत प्रभाव डालते हैं। ठीक वैसे ही जैसे जब आप रेडियो पर कोई स्टेशन मिलाने का प्रयास करते हैं तब वायुमंडलीय विक्षोभ आपको प्रसारित हो रहे कार्यक्रम को ठीक से सुनने में व्यवधान उत्पन्न कर सकते हैं। उसी तरह मनुष्य का दुराचरण प्रकृति की शक्तियों के मध्य विद्यमान प्राकृतिक सामंजस्य में बाधा, विक्षेप उत्पन्न करता है। युद्ध, प्राकृतिक आपदाएं, सामाजिक उथल-पुथल एवं दूसरी समस्याएं जिनका हम सामना कर रहे हैं वे सभी इस का परिणाम स्वरूप हैं।
परमात्मा के प्रकाश एवं आनंद से परिपूर्ण
हमें बदलना चाहिए। परमहंस योगानन्दजी का यही संदेश था; इसीलिए उन्होंने जो काम आरंभ किया वह दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जाएगा क्योंकि यह वैसा कर सकता है और लोगों को रूपांतरित होने में सहायता करेगा।
दुख कष्ट से पीड़ित होकर आमतौर पर लोग कहते हैं: “भगवान् ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया?” उन्होंने हमारे साथ वैसा नहीं किया। हमें अपने किए कर्मों की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेनी चाहिए। जब हम पत्थर की दीवार पर प्रहार करते हैं तब दीवार हमें चोट नहीं पहुँचाना चाहती परंतु हम अपनी अंगुलियां या सिर तोड़ सकते हैं। इसके लिए हम दीवार को दोष नहीं दे सकते। हम विलाप कर सकते हैं –“लेकिन मुझे नहीं मालूम था कि वहाँ दीवार थी नहीं तो मैं उससे टक्कर नहीं मारता।” इसीलिए परमात्मा ने दिव्य नियम रचे और विश्व के सभी महान् धर्मों के द्वारा उन्हें मार्गदर्शन देने के लिए प्रेषित किया। हममें से प्रत्येक से वह कहते हैं, “मेरे बच्चे यह पूर्ण सत्य हैं जिनका अनुसरण आपको करना चाहिए।” वह जानते थे कि हम दुर्बल हैं; वह जानते थे कि हम अनैतिक हैं। वह जानते थे कि हम उनसे संपर्क खो चुके हैं — और हमारी दृष्टि व विवेक लुप्त हो चुके हैं — भौतिक जगत् में अत्यधिक डूब जाने के कारण। इसलिए उन्होंने वे नियम मसीहाओं और ऋषिओं के माध्यम से प्रेषित किए हमें हमारी गलती में सहायता देने के लिए। जब हम इन दिव्य सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं तो हमें दुःख उठाना ही पड़ता है।
हमें वापस उनकी ओर लौटना होगा। हमें यह समझना होगा जैसा कि क्राइस्ट ने कहा था कि हमारा साम्राज्य यह संसार नहीं है। वह इस नश्वर साम्राज्य से कहीं ऊपर है — जहाँ दिव्य आत्माएं निवास करती हैं जहाँ महान् संत सद्गुरु निवास करते हैं। कितनी ही बार मैंने परमहंसजी को उनके कक्ष में अकस्मात अत्यधिक शांत मुद्रा में और बाहरी जगत् से पूरी तरह निर्लिप्त अवस्था में पाया। उन सुंदर अवसरों पर हममें से कुछ सौभाग्यशाली शिष्य थे जो उनके चरणों में बैठते थे और उनके सानिध्य में ध्यान करते थे। जब वह आँखें खोल चुके होते थे तब वह उस परलोक के विषय में बताते थे — “आप इस सीमित संसार को देख रहे हैं? यह कितना अधूरा सा है। काश आप देख सकते जैसे मैं देखता हूँ इस संसार से परे उस महान् संसार को — परमात्मा के प्रकाश से परिपूर्ण और आनंदमय”।
मेरे प्रियजनों, आपका साम्राज्य भी इस संसार में नहीं है। हमें अपने असली साम्राज्य को नहीं भूलना चाहिए; हमें अपना सारा समय और ध्यान इस संसार की वस्तुओं पर नहीं लगाना चाहिए क्योंकि एक दिन हमें सब कुछ यहीं छोड़कर वापस जाना होगा।
दुर्दैव और निराशा को स्वीकार मत कीजिए
इसलिए जब आप मुझसे प्रश्न करते हैं “हम इस संसार में ‘दुर्दैव और निराशा’ का सामना किस प्रकार से करें?” मैं आपसे कहती हूँ इन्हें स्वीकार ही मत कीजिए। इनका कोई अस्तित्त्व ही नहीं है जब तक आप अपनी चेतना में इन्हें अंधकार के रूप में प्रवेश करने की अनुमति नहीं देते। अपनी जागरूक चेतना के केंद्र को बदलने का प्रयास कीजिए। प्रतिदिन कितनी बार हम परमेश्वर को याद करते हैं? हम कितनी बार परमेश्वर के साथ जुड़ने के लिए अंतर्मुखी होते हैं? सदा उनकी उपस्थिति की भावना के साथ जीवनयापन करना अद्भुत अनुभूति है, हमेशा इस विचार में मग्न रहना कि, “मैं आपसे प्रेम करता हूँ, मेरे परमेश्वर” यह कितना रोमांचक है। “मैं आपसे प्रेम करता हूँ और क्योंकि सबसे पहले मैं आपसे प्रेम करता हूँ मैं संपूर्ण मानवता के प्रति प्रेम का अनुभव करता हूँ। जो मुझे गलत समझते हैं मैं उन्हें क्षमा कर सकता हूँ क्योंकि मैं आपसे प्रेम करता हूँ। मैं इस संसार में बस अच्छा बनकर रहना चाहता हूँ क्योंकि मैं आपसे प्रेम करता हूँ।” यही वह तरीका है जिसके साथ हमें अपना जीवनयापन करना चाहिए।
“दुर्दैव और निराशा” से हतोत्साहित नहीं होइए; यह समय निकल जायेगा। इस संसार में अनेकों सभ्यताएं जन्मी और मिट गईं। जिन संकटों का सामना हम आज कर रहे हैं वैसे अगणित संकट आते जाते रहे हैं — जितने हम जान सकते हैं या याद रख सकते हैं उनसे कहीं अधिक, यद्यपि हमारी आत्मा अनेक जन्म जन्मांतरों की लंबी यात्रा करती हुई उनमें से अनेक संकटों का अनुभव कर चुकी है। लेकिन बस इतना ही पर्याप्त नहीं है। हमारे लिए इससे कहीं बेहतर परलोक में बहुत कुछ है। जितना हम अपने मन को इस संसार व भौतिक शरीर के मोह से परे ले जाएंगे उतना ही हम अपनी चेतना को दिव्य साम्राज्य के अंदर प्रवेश कराने में सफल हो सकेंगे।
हम अपनी इंद्रियों को आध्यात्मिक बनाने के प्रयास से शुभारंभ करते हैं। केवल शुभ देखिए, शुभ विचार रखिए। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम अंध आशावादी हो जाएँ; इसका तात्पर्य यह है कि हमारे अंदर संकल्प शक्ति, ताकत, भक्ति भाव और आस्था है यह कहने के लिए “मेरे परमेश्वर, मैं आपका हूँ और इस संसार के एक कोने में रहता हुआ मैं वह सब करूँगा जो मैं कर सकता हूँ दूसरों को सुख देने और उनके उत्थान के लिए। चाहे फिर वह मेरा परिवार हो, मेरे पड़ोसी हों, मेरा संप्रदाय हो जिन जिन तक भी मेरी पहुँच है। मैं अपनी सामर्थ्य के अनुसार सर्वश्रेष्ठ प्रयास करूँगा चाहे मैं स्वयं संघर्षरत हूँ।”
मेरे गुरुदेव अक्सर कहते थे “असली सन्त वे हैं जो अपने कष्ट के दौरान भी अपनी शरण में आए व्यक्तियों को सुख देते हैं, उनके घाव भरते हैं”। ईश्वर के सच्चे प्रेमी का आचरण ऐसा ही होता है। चाहे वह स्वयं किसी भी स्थिति से गुज़र रहे हैं, जो कोई भी उनके निकट आता है वह हतोत्साहित या निराश होकर वापस कभी नहीं लौटता। हम सभी परमेश्वर के अंश हैं और हममें से प्रत्येक के अंदर वह क्षमता है जिससे हम जीवन की कठिनाइयों पर विजय प्राप्त कर सकेंगे। लेकिन हमें इस पर विश्वास रखना होगा, हमें इसका अभ्यास करना होगा-और हमें हमेशा प्रफुल्लित रहने के लिए संघर्ष करना होगा।
“एक सन्त जो उदास रहता है” परमहंस जी कहते थे “वह उदास सन्त है!” वह स्वयं सदा आनंदमग्न रहते थे हर स्थिति और काल में। योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया एवं सेल्फ़-रियलाईज़ेशन फ़ेलोशिप की स्थापना के लिए कठिन संघर्ष के समय में भी। ईश्वर की सेवा करना आसान काम नहीं है; इस संसार में, जीवन आसान नहीं है! किन्तु हमें आनंद, प्रसन्नता एवं दृढ़ संकल्प के साथ जीवनयापन करना चाहिए यह मान कर कि हम विजयी होंगे और हमारा कल्याण होगा क्योंकि दिव्य शक्ति हमारे साथ है।
कभी भी तुनक मिजाज व्यक्ति मत बनिए; निराशाजनक विचार फैलाने वाले कभी मत बनिए। स्मरण रखिए: यह संसार द्वंद के सिद्धांत पर रचा गया है; हर वस्तु के दो पक्ष हैं — सकारात्मक एवं नकारात्मक — और प्रत्येक मनुष्य के पास दोनों में से एक को चुनने की स्वतंत्रता है अपनी चेतना को एक या दूसरी ओर प्रवाहित करने के लिए। कोई भी व्यक्ति किसी बदबूदार वस्तु के निकट रहना पसंद नहीं करता। वह नकारात्मक है तथा हमें निराशा में धकेल देता है। किन्तु, जैसा हमारे गुरुदेव कहा करते थे, सभी लोग गुलाब के फूल से आकर्षित होते हैं जो मधुर सुगंध फैलाता है। एक सकारात्मक मनुष्य के रूप में गुलाब का फूल बनिए।
अपने मन को सकारात्मक होने के लिए, प्रसन्न रहने के लिए, आनंदमय अवस्था में स्थित रहने के लिए तैयार कीजिए। मैं वचन देती हूँ कि यदि आप ऐसा करते हैं तो आप पाएंगे कि आपके जीवन में सुखद घटनाएं घटने लगती हैं क्योंकि विचारों में आकर्षण शक्ति होती है। यदि स्वभाव वश हमारे विचार नकारात्मक बने रहे तो हम नकारात्मक परिस्थितियों को आकर्षित करते हैं। यदि हम सकारात्मक विचार सहित जीवनयापन करें तो सकारात्मक परिणामों को अपने जीवन में आमंत्रित करते हैं। यह नितांत सरल है : जैसे को तैसा मिलता है।
संसार को रूपांतरित करने के लिए प्रार्थना की शक्ति
मैंने जिस सूक्ष्म जगत् के दृश्य का उल्लेख किया, उसके अंत में मैंने देखा था कि आध्यात्मिक सिद्धांतों का पालन करने वाले मनुष्यों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि से परमात्मा की शक्ति द्वारा संसार को खतरे में डालने वाला अंधकार पीछे धकेला जा चुका था। आध्यात्मिकता नैतिकता से आरंभ होती है, उचित आचरण के नियम जो सभी धर्मों के मूल में हैं — जैसे सत्य, आत्म संयम, विवाह की प्रतिज्ञा के प्रति ईमानदारी, अहिंसा इत्यादि। और हमें केवल अपना आचरण ही सहज नहीं बनाना चाहिए अपितु विचार भी बदलने चाहिए। यदि हम एक प्रकार की सोच पर अटल रहें तो यही विचार कर्म का रूप ले लेते हैं। इसलिए अपने को बदलने के लिए पहले हमें अपने विचार बदलने चाहिएं।
विचार एक शक्ति है; इसमें असीमित क्षमता विद्यमान है। इसलिए मैं कहती हूँ कि परमहंस योगानन्दजी ने जो विश्वव्यापी प्रार्थना मण्डल स्थापित किया उसमें मैं बहुत गहराई से आस्था रखती हूँ। मुझे आशा है कि आप सभी इसमें सक्रिय भागीदार हैं। जब बहुत से लोग सामूहिक रूप से शांति, प्रेम, मंगल कामना, क्षमा के सकारात्मक विचार एकाग्र होकर प्रसारित करते हैं जैसे विश्वव्यापी प्रार्थना मण्डल की आरोग्यकारी प्रविधि में किया जाता है, तब बहुत प्रचंड ऊर्जा उत्पन्न होती है। यदि जनसाधारण मिलकर ऐसा अभ्यास करने लगें तो शुभकामनाओं की तरंगे प्रवाहित होंगी जो सारे संसार को रूपांतरित कर देंगी।
अपने आपको बदलिए और आप हजारों को बदल देंगे
हमारा दायित्व है कि हम ईश्वर के साथ सामंजस्य हेतु पूरा प्रयास करें जिससे हमारे विचार, शब्द, आदर्श व्यवहार के द्वारा हम शेष संसार तक पहुँचकर उनपर कुछ आध्यात्मिक प्रभाव डाल सकें। शब्दों का कोई अभिप्राय नहीं होता जब तक उनपर आचरण में अमल न किया जाए। क्राइस्ट के वचन आज भी उतने ही सारगर्भित हैं जितने दो हज़ार वर्ष पहले थे क्योंकि उन्होंने जो भी शिक्षा दी उसको जीवन में चरितार्थ करके दिखाया। हमारे जीवन भी मौन रहते हुए हमारे उन सिद्धांतों को अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति देते रहें जिनमें हम विश्वास रखते हैं। जैसा कि हमारे गुरुदेव अक्सर कहा करते थे, “अपने आपको सुधार लीजिए और आप हजारों को सुधार देंगे।”
आप कह सकते हैं “लेकिन संसार में इतना कुछ है जिसे सुधारने की आवश्यकता है; बहुत कुछ है जो किया जाना चाहिए।” जी हाँ आवश्यकता बहुत विशाल है; लेकिन संसार की समस्याओं का मात्र बाहरी सुधार करने के हमारे प्रयत्न से निराकरण संभव नहीं है। हमें इसका असली कारण सुधारना होगा, मानवीय तत्त्व और हमें शुरुआत अपने आपसे ही करनी होगी।
आप किसी से हज़ार बार धूम्रपान नहीं करने के लिए कह सकते हैं, लेकिन उसने मन में निश्चय कर रखा है कि उसे सिगरेट अच्छी लगती है, आपके कहने से उसकी आदत में कोई सुधार नहीं आने वाला। केवल जब उसे खांसी हो जाएगी और धूम्रपान के नकारात्मक प्रभाव का कष्ट अनुभव होगा तभी उसे अपनी गलती का एहसास होगा, “इसका मुझ पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है; अब मुझे इस पर सोच विचार कर कुछ करना होगा।” ठीक वैसे ही शांत रहने की आपकी बात का उस व्यक्ति पर कोई प्रभाव नहीं होगा जिसके स्वभाव में व्यग्रता है। लेकिन यदि वह व्यक्ति आपकी शांत प्रकृति से प्रवाहित होने वाली सामंजस्य व कल्याण की भावना का अनुभव करेगा, जो प्रमाणिक हो; तब उस पर लाभदायक प्रभाव पड़ेगा।
अपनी आत्मा का परमात्मा के साथ आंतरिक सामंजस्य स्थापित करें
जिस शांति व सामंजस्य की खोज आज सभी लोग व्यग्रता से कर रहे हैं वह भौतिक वस्तु या किसी बाहरी अनुभव से अर्जित नहीं की जा सकती; यह बिल्कुल संभव नहीं है। संभव है कि किसी सुबह एक मोहक सूर्योदय का अवलोकन कर या पर्वतीय दर्शनीय स्थान पर जाकर या समुद्रतट पर जाकर आपको कुछ क्षणों के लिए शांति का अनुभव हो जाए। लेकिन सबसे अधिक प्रेरणादायक बाहरी संरचना भी आपको शांति नहीं दे सकेगी यदि आपके अपने अंदर बेचैनी है सामंजस्य का अभाव है।
जीवन की बाहरी परिस्थितियों में सामंजस्य लाने का रहस्य सूत्र है अपनी आत्मा में परमात्मा के साथ आंतरिक सामंजस्य स्थापित किया जाए।
जैसे-जैसे अधिक से अधिक मानवता उस स्थिति को पाने के लिए प्रयत्नशील होती जाती है, वे संकट जो हमारे संसार को खतरे में डाल रहे हैं अपने आप घटने शुरू हो जाते हैं। लेकिन हमें यह समझना होगा कि यह धरती कभी भी आदर्श स्थिति में नहीं रह सकती, क्योंकि यह हमारा स्थाई आवास नहीं है; यह एक पाठशाला है और इसके विद्यार्थी शिक्षा के अलग-अलग स्तर पर शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। हम यहाँ पर जीवन के सभी अनुभवों से होकर गुजरने के लिए आते हैं, सुख और दुःख, जिससे हम दोनों से ही सबक सीख सकें।
ईश्वर शाश्वत हैं और उसी तरह हम सब भी। उनका ब्रह्मांड उतार-चढ़ाव से होकर कालचक्र के साथ घूमता रहेगा। यह हमें समझना है कि हम सृष्टि के सिद्धांतों के अनुरूप अपने आपको सामंजस्यपूर्ण अवस्था में रखें। जो भी ऐसा कर पाते हैं वे निरंतर ऊर्ध्वगति में प्रगति करते रहते हैं बाहरी परिस्थितियाँ चाहे जैसा भी रूप धारण करें और कालचक्र के किसी भी खंड में हमें जन्म प्राप्त हो; और अपनी चेतना के उत्थान से वे परमात्मा में ही परम स्वतंत्रता प्राप्त कर लेते हैं।
अंततोगत्वा, हममें से प्रत्येक का मोक्ष उसके अपने हाथ में ही है — हम किस तरह जीवन का सामना करते हैं; किस प्रकार का आचरण करते हैं; हम जीवन को ईमानदारी, निष्ठा, दूसरों का सम्मान और सबसे ऊपर, साहस, आस्था, परमात्मा में विश्वास के साथ जीते हैं या नहीं। यह नितांत सरल हो जाता है यदि हम परमात्मा के प्रेम पर ध्यान केन्द्रित रखें। तब हम अच्छे काम करने का प्रयास करेंगे और अच्छा बनेंगे क्योंकि हमें शांति, विवेक व आनंद प्राप्त होता है जो उस परम चेतना से प्रवाहित होता है जिससे हम सभी जन्मे हैं।
कितनी ही बार परमहंसजी ने हमें अपने साथ जीवन को परमात्मा के आनंद से भरकर जीने के लिए प्रतिज्ञापन करने हेतु प्रेरित किया :
मैं आनंद से आया हूँ, मैं आनंद में जीता हूँ, गति करता हूँ और अस्तित्त्व बनाए हुए हूँ।
इस सत्य को जीवन में धारण करें और आप देखेंगे कि किस तरह आनंद आपको भीतर से पोषित करता रहता है चाहे जीवन में कुछ भी होता रहे। आनंद आपके लिए अधिक सच्चा हो जाता है बहुरूप दर्शक यंत्र की तरह निरंतर बदलते हुए इस बाहरी संसार की तुलना में।