(श्री श्री परमहंस योगानन्द के व्याख्यानों एवं कक्षाओं से उद्धृत)
आपकी सबसे बड़ी शत्रु आपकी बुरी आदतें हैं। जब तक आप इन पर विजय प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक ये जन्म जन्मान्तर तक आपका पीछा करती रहेंगी। स्वयं को नियति से मुक्त करने के लिए आपको बुरी आदतों से स्वयं का रोगशमन करना होगा। कैसे? अच्छी संगति सबसे उत्तम औषधियों में से एक है। यदि आपकी प्रवृत्ति मद्यपान की है, तो ऐसे लोगों के साथ उठें-बैठें जो मद्य का सेवन नहीं करते। यदि आप अस्वस्थता से पीड़ित हैं, तो ऐसे लोगों के साथ रहें जिनकी मनोवृत्ति सकारात्मक है, जो अस्वस्थता के बारे में नहीं सोचते। यदि आपकी चेतना में असफलता के विचार रहते हैं तो ऐसे लोगों के साथ रहें जिनकी चेतना सफलता की है। तब आप में परिवर्तन होना प्रारम्भ होगा।
आपकी प्रत्येक आदत आपके मस्तिष्क में एक विशेष “खाँचा” या ढर्रा बना देती है। ये ढर्रे आपको एक ख़ास तरह से व्यवहार करने पर बाध्य करते हैं, प्रायः आपकी इच्छा के विरुद्ध। आपका जीवन उन खाँचों के अनुसार चलता है, जिनका स्वयं आपने अपने मस्तिष्क में सृजन किया है। इस तरह से देखा जाए तो आप एक मुक्त व्यक्ति नहीं हैं; आप अपनी स्वजनित आदतों के शिकार प्रायः हैं। आप किस हद तक एक कठपुतली हैं, यह इस पर निर्भर करता है कि ये ढर्रे कितने पक्के हैं। परन्तु आप उन बुरी आदतों के आदेशों को निष्प्रभावित कर सकते हैं। कैसे? इनके विपरीत अच्छी आदतों के मस्तिष्कीय ढर्रे बनाकर। और आप ध्यान द्वारा बुरी आदतों के खाँचों को पूर्णतः मिटा सकते हैं। इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। तथापि, सत् संगति और अच्छे परिवेश के बिना आप अच्छी आदतों को संवर्धित नहीं कर सकते। और आप सत् संगति एवं ध्यान के बिना स्वयं को बुरी आदतों से मुक्त नहीं कर सकते।
हर बार जब आप गहनता से ईश्वर का ध्यान करते हैं, तो आपके मस्तिष्क के ढर्रों में लाभदायक परिवर्तन उत्पन्न होते हैं। मान लीजिए आप आर्थिक रूप से, या नैतिक रूप से, अथवा आध्यात्मिक रूप से असफल हैं। गहन ध्यान द्वारा, यह प्रतिज्ञापन करते हुए, “मैं और मेरे परमपिता एक हैं,” आप यह जान जायेंगे कि आप ईश्वर की सन्तान हैं। उस आदर्श को अपना लें। तब तक ध्यान करें जब तक आप एक परम शान्ति का अनुभव नहीं करते। जब आनन्द आपके हृदय का भेदन करता है, तो समझिये कि ईश्वर ने आपके द्वारा उन्हें किये जा रहे प्रसारण का उत्तर दिया है; वे आपकी प्रार्थनाओं एवं सकारात्मक विचारों का प्रत्युत्तर दे रहे हैं। यह एक विशिष्ट और निश्चित विधि है:
पहले अपने हृदय में एक अनन्त शान्ति, और इसके बाद एक परम आनन्द को अनुभव करने का प्रयास करते हुए इस विचार पर ध्यान लगाएँ, “मैं और मेरे परमपिता एक हैं।” जब उस परम आनन्द का अनुभव होने लगे, तो कहें, “परमपिता, आप मेरे साथ हैं। अपने अन्तर में स्थित आपकी शक्ति को मैं आदेश देता हूँ कि वह बुरी आदतों की मेरी मस्तिष्कीय कोशिकाओं को, और पुराने प्रवृत्ति-बीजों को भस्मिभूत कर दे।” ध्यान में ईश्वर की शक्ति ऐसा कर देगी। पुरुष या स्त्री होने की संकीर्ण चेतना से स्वयं को छुटकारा दिलाये, यह जानें कि आप ईश्वर के बच्चे हैं। फिर मानसिक रूप से प्रतिज्ञापन करें और ईश्वर से प्रार्थना करें:“ मैं अपने मस्तिष्क की कोशिकाओं को आज्ञा देता हूँ कि वे बदल जाएँ, कि वे बुरी आदतों के उन खाँचों को ध्वस्त कर दें जिन्होंने मुझे एक कठपुतली बना दिया है। हे प्रभु! अपने दिव्य प्रकाश में इन्हें भस्म कर दें।” और जब आप ध्यान, विशेष रूप से क्रियायोग की योगदा सत्संग प्रविधियों का अभ्यास करेंगे, तो आप वास्तव में देखेंगे कि परमेश्वर का प्रकाश आप को निर्मल कर रहा है।
मैं आपको इस प्रविधि की परिणामिता की एक कहानी बताता हूँ। भारत में, एक बार मेरे पास एक व्यक्ति आया जिसे अपने क्रोध पर संयम नहीं था। क्रोध में आकर अपने अफ़सरों को थप्पड़ मारने में उसे महारथ हासिल थी। इस कारण वह एक के बाद एक नौकरियों से हाथ धोता रहा। वह बेकाबू होकर इतना गुस्सैल हो गया कि अगर वह किसी से तंग हो जाता तो उसके हाथ में जो कुछ आ जाए वही उठा कर मार देता था। उसने मुझसे सहायता माँगी। मैंने उससे कहा, “अगली बार जब तुम्हें गुस्सा आए तो एक से लेकर सौ तक गिनना।” उसने कोशिश तो की, परन्तु वह मेरे पास वापस आया और बोला, “जब मैं ऐसा करता हूँ तब तो मुझे और ज़्यादा गुस्सा आने लगता है। जब मैं गिनती कर रहा होता हूँ तो उस समय मैं गुस्से के मारे अन्धा हो जाता हूँ कि मुझे इतनी देर इन्तज़ार करना पड़ रहा है।” उसकी हालत बहुत ही निराशाजनक प्रतीत हो रही थी।
तब मैंने उसे क्रियायोग का अभ्यास करने के लिए कहा, इस निर्देश के साथ कि: “क्रिया के अभ्यास के बाद, ऐसा सोचो कि ईश्वर का दिव्य प्रकाश तुम्हारे मस्तिष्क में प्रवेश कर रहा है, उसे आराम दे रहा है, तुम्हारी तंत्रिकाओं को शान्त कर रहा है, तुम्हारे संवेगों को शान्त कर रहा है, क्रोध को पूरी तरह से मिटा रहा है। और एक दिन तुम्हारे क्रोध के ये दौरे चले जायेंगे।” उसके थोड़े दिन बाद ही वह पुनः मेरे पास आया और इस बार उसने कहा, “मैं क्रोध की आदत से मुक्त हूँ। आपका कितना आभारी हूँ मैं!”
मैंने उसकी परीक्षा लेने का निश्चय किया। उससे झगड़ा मोल लेने के लिए मैंने कुछ लड़कों को इकट्ठा किया। जिस रास्ते से वह रोज़ाना गुज़रता था, उसके किनारे बने एक पार्क में मैं गया ताकि मैं नज़ारा देख सकूँ। उन लड़कों ने झगड़ा करने के लिए उसे उकसाने का बार-बार प्रयास किया, पर उस व्यक्ति ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। उसने अपनी शान्ति बनाए रखी।