वर्ष 2011 आधुनिक समय में क्रियायोग की 150 वीं वर्षगांठ है। हिमालय की एक गुह्य कन्दरा से अपनी यात्रा की शुरुआत कर, आत्मा की मुक्ति की यह सर्वोच्च प्रविधि सब देशों में फैल रही है। यह हर जगह ईश्वर की खोज करने वालों की सहायता कर रही है ताकि वे ईश्वर के साथ सीधे व्यक्तिगत सम्पर्क के अनुभव की ओर जितनी तेज़ी से हो सके आध्यात्मिक उन्नति कर सकें।
यह संकलन, मुक्ति प्राप्त करने की एक उत्कृष्ट विधि — क्रियायोग — जिसे इस युग के लिए एक विशेष विधान के रूप में ईश्वर एवं महान् गुरुओं द्वारा पृथ्वी पर भेजा गया है, की प्रकृति, भूमिका और क्षमता पर परमहंस योगानन्दजी के शब्दों को प्रस्तुत करता है।
150 वर्ष पहले : आधुनिक समय के लिए योग का पुनर्जागरण लाहिड़ी महाशय के जीवन के तैंतीसवें वर्ष में उस उद्देश्य की पूर्ति हुई, जिसके लिए उन्होंने इस धरा पर पुनः जन्म लिया था। हिमालय में रानीखेत के पास उनकी मुलाकात अपने महान् गुरु बाबाजी से हुई और उन्हें क्रियायोग की दीक्षा मिली।
वह पवित्र घटना केवल लाहिड़ी महाशय के साथ ही नहीं घटी, बल्कि पूरी मानवजाति के लिए वह अत्यंत पवित्र क्षण था। योग की लुप्त हुई या दीर्घ काल तक अज्ञात रही सर्वोच्च विद्या पुनः प्रकाश में लायी गई।
पौराणिक कथा में जिस प्रकार गंगा ने स्वर्ग से पृथ्वी पर उतर कर अपने तृषातुर भक्त भगीरथ को अपने दिव्य जल से संतुष्ट किया, उसी प्रकार 1861 में क्रियायोग रूपी दिव्य सरिता हिमालय की गुह्य गुफ़ाओं से मनुष्यों की कोलाहलभरी बस्तियों की ओर बह चली।
सन् 1861 में काशी के एक एकाकी कोने में एक महान् आध्यात्मिक पुनरुत्थान का श्रीगणेश हुआ। साधारण लोक समाज इससे पूर्णतः अनभिज्ञ था। जिस प्रकार फूलों की सुगन्ध को छिपाकर नहीं रखा जा सकता, उसी प्रकार आदर्श गृहस्थ का जीवन चुपचाप व्यतीत करते लाहिड़ी महाशय अपने स्वाभाविक तेज को छिपाकर नहीं रख सके। भारत के कोने-कोने से भक्त भ्रमर इस जीवनमुक्त सद्गुरु से सुधापान करने के लिए मँडराने लगे।…
गुरु के रूप में उनकी अपूर्व विशिष्टता यह है कि उन्होंने एक निश्चित प्रणाली — क्रियायोग — पर व्यवहारिक ज़ोर देते हुए प्रथम बार सभी मनुष्यों के लिए योग साधना का द्वार खोल दिया। उनके अपने जीवन के असंख्य चमत्कारों के अतिरिक्त, योग मार्ग की प्राचीन जटिलताओं को सर्वसामान्य लोगों की समझ में आसानी से आने लायक प्रभावशाली सरल रूप देकर योगावतार ने सब प्रकार के चमत्कारों की पराकाष्ठा कर दी।
योगावतार ने घोषणा कर दी थी : “ईश्वर-साक्षात्कार आत्मप्रयास से संभव है, वह किसी धार्मिक विश्वास या किसी ब्रह्माण्ड नायक की मनमानी इच्छा-अनिच्छा पर निर्भर नहीं है।”
जो लोग किसी भी मनुष्य के देवत्व पर विश्वास नहीं कर सकते, वे क्रिया की कुंजी को प्रयुक्त कर अंततः स्वयं अपने पूर्ण देवत्व का दर्शन करेंगे।
एक पुरातन विज्ञान
परमहंस योगानन्दजी ने अपनी योगी कथामृत में एक अध्याय “क्रियायोग विज्ञान” के लिए समर्पित किया। (ईश्वर अर्जुन संवाद) : श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय चार, श्लोक 1-2, 7-8 और 28-29 एवं अध्याय पाँच, श्लोक 27-28 की अपनी टिप्पणियों में वे इस विज्ञान में निहित योग के उच्च सिद्धांतों का वर्णन देते हैं। क्रियायोग प्रविधि की शिक्षा योगदा सत्संग पाठों के उन छात्रों को दी जाती है जो कुछ प्रारंभिक आध्यात्मिक साधना को पूरा करते हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् कृष्ण ने अर्जुन से कहा :
“मैंने विवस्वत (सूर्य-देव) को यह अविनाशी योग प्रदान किया; विवस्वत ने यह ज्ञान मनु (हिंदू विधान देनेवाले) को दिया; मनु ने इसके बारे में इक्ष्वाकु (क्षत्रियों के सूर्यवंश के संस्थापक) को बताया। इस प्रकार क्रमपूर्वक एक-से-दूसरे तक आते हुए, राजर्षियों ने इसे जाना था। परन्तु, हे शत्रुओं को भस्मीभूत करने वाले (अर्जुन)! कालांतर में, यह योग धरती पर से लुप्त हो गया था।” — 4 : 1-2
इस प्रकार ये दो श्लोक राज (“राजसी”) योग की ऐतिहासिक पुरातनता की घोषणा करते हैं — आत्मा और परमात्मा को जोड़ने वाला शाश्वत, अपरिवर्तनीय विज्ञान। इसके साथ ही, गूढ़ रूप में समझने पर, ये श्लोक इस विज्ञान का एक संक्षिप्त वर्णन करते हैं। ये श्लोक उन चरणों के बारे में बताते हैं जिनके द्वारा आत्मा, विश्व-चैतन्य से मानव शरीर के साथ पहचान की नश्वर अवस्था में उतरी है, तथा किस मार्ग के द्वारा यह परमानंदमय अनन्त परमात्मा रूपी अपने स्रोत तक वापस लौट सकती है।
आरोहण, अवरोहण के रास्ते का ठीक उलटा है। मनुष्य में यह रास्ता अनन्त को जाने का आंतरिक राजमार्ग है। सभी युगों में सभी धर्मों के अनुयायियों के लिए परमात्मा से मिलन का यह एकमात्र मार्ग है। इस एकमात्र राजमार्ग पर व्यक्ति विश्वासों या साधना-प्रणालियों के किसी भी उपमार्ग द्वारा पहुँचे : शरीरी चेतना से ब्रह्म तक का अंतिम आरोहण सबके लिए समान है। यह आरोहण, प्राण-शक्ति और चेतना का इन्द्रियों से प्रत्याहार होकर, सूक्ष्म मस्तिष्कमेरु केन्द्रों (cerebrospinal centres) में प्रकाश के द्वारों के द्वारा ऊपर जाने से होता है। जड़-तत्त्व की चेतना प्राण-शक्ति में विलीन हो जाती है, प्राण-शक्ति मन में, मन आत्मा में, और आत्मा ब्रह्म में विलीन हो जाती है।
आरोहण की विधि राजयोग है। राजयोग का अनन्त विज्ञान, सृष्टि के उत्पन्न होने के साथ ही, सृष्टि में अंतर्भूत रहा है।
आधुनिक जगत् के लिए एक विशेष विधान
आध्यात्मिक युग से भौतिकतावादी युग में मनुष्य के अवरोहण के दौरान, योग विज्ञान के ज्ञान में ह्रास होता है और इसे भुला दिया जाता है।…इस आरोही परमाणविक युग में महावतार बाबाजी, श्यामा चरण लाहिड़ी महाशय, स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी और उनके चेलों की कृपा के द्वारा एक बार फिर से राजयोग के अविनाशी विज्ञान को क्रियायोग के रूप में पुनर्जीवित किया जा रहा है।…
एक विशेष ईश्वरीय विधान के अनुसार, श्रीकृष्ण, क्राइस्ट, महावतार बाबाजी, लाहिड़ी महाशय और स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी के माध्यम से मुझे क्रियायोग विज्ञान को दुनिया भर में फैलाने के लिए चुना गया है। यह कार्य श्रीकृष्ण द्वारा बताएं असली योग एवं क्राइस्ट द्वारा बताएं मूल ईसाई धर्म की एकता द्वारा संपादित होना था, जैसा कि योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया / सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप की शिक्षाओं में दिया गया है।
यह महावतार बाबाजी (जिन्हें मैं सदा आत्मिक रूप से श्रीकृष्ण के साथ एक मानता हूँ) और क्राइस्ट और मेरे गुरु और परमगुरु की इच्छा एवं आशीर्वाद का फल है कि मुझे पश्चिम में भेजा गया और वहाँ मैं सेल्फ़ रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप की स्थापना कर पाया जो क्रियायोग के संरक्षण और विश्वव्यापी प्रसार का माध्यम बना है।
पूर्व में कृष्ण, योग के आदर्श के दिव्य उदाहरण हैं; पश्चिम ईश्वर-साक्षात्कार के आदर्श उदाहरण के रूप में ईश्वर ने क्राइस्ट को चुना। यह तथ्य कि जीसस, आत्मा को परमात्मा से मिलाने वाली राजयोग की विधि जानते थे तथा उन्होंने अपने शिष्यों को भी यह विधि सिखायी, बाइबिल के अत्यधिक प्रतीकात्मक अध्याय, “द रिवीलेशन ऑफ़ जीसस क्राइस्ट टु सेंट जॉन” * से स्पष्ट होता है।
बाबाजी सदा जीसस क्राइस्ट के सम्पर्क में रहते हैं। वे दोनों मिलकर जगत् के उद्धार के स्पंदन भेजते रहते हैं और इस युग के लिए मोक्ष प्रदायिनी आध्यात्मिक विधि भी उन्होंने तैयार की है।
क्रियायोग सत्य पर ध्यान केंद्रित करता है, सांप्रदायिक हठधर्मिता पर नहीं
श्रीमद्भगवद्गीता भारत में योग का, दिव्य-एकात्मता के विज्ञान का — परमप्रिय ग्रंथ है। यह दैनिक जीवन में आनंद एवं संतुलित सफलता के लिए एक कालजयी उपचार है। परमहंस योगानन्दजी की गीता पर व्यापक टीका को ईश्वर अर्जुन संवाद : श्रीमद्भगवद्गीता — आत्म-साक्षात्कार का राजयोग विज्ञान शीर्षक दिया गया है (यह दो खण्डों में है और योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप द्वारा प्रकाशित है)। उन्होंने लिखा : “मेरे गुरु और परमगुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वर, लाहिड़ी महाशय और महावातर बाबाजी — इस वर्तमान युग के ऋषि हैं। ये गुरु स्वयं ईश्वर-प्राप्त हैं और शास्त्रों के जीवंत रूप हैं। इन गुरुओं ने लंबे समय से लुप्त क्रियायोग की वैज्ञानिक विधि के साथ-साथ, पवित्र श्रीमद्भगवद्गीता की एक नयी व्याख्या, दुनिया को विरासत में दी है। यह नवीन व्याख्या मुख्य रूप से योग-विज्ञान और विशेष रूप से क्रियायोग के लिए प्रासंगिक है।”
लाहिड़ी महाशय की शिक्षा आधुनिक युग के लिए विशेष रूप से अनुकूल है क्योंकि यह किसी को भी हठधर्मिता से विश्वास करने के लिए नहीं कहती। बल्कि यह क्रियायोग की सिद्ध प्रविधियों के अभ्यास से व्यक्तिगत बोध द्वारा, स्वयं और ईश्वर के बारे में “सत्य क्या है?” — इस शाश्वत प्रश्न का उत्तर खोजने को प्रेरित करती है।
सत्य कोई सिद्धान्त नहीं है, न ही वह दर्शनशास्त्र की कोई तर्क-प्रणाली है। वह तो वास्तविकता के साथ सटीक तदनुरूपता है। मनुष्य के लिए आत्मा के रूप में अपने सच्चे स्वरूप का अटल ज्ञान ही सत्य है।
ईश्वर और सृजन के परम रहस्यों के बारे में सभी अटकलें, अंततः निरर्थक हैं। यह कड़वा सत्य सदा हमारे साथ है : मनुष्य यहाँ है और अभी मानव जन्म की दर्दनाक परीक्षाओं के दौर से गुज़र रहा है। जिस प्रकार कैदी अपनी स्वतंत्रता वापस पाने के लिए निरंतर साज़िश करते हैं, वैसे ही विज्ञजन नश्वरता के कारावास से भाग निकलने का प्रयास करते हैं।
क्रियायोग न केवल आत्मा के ब्रह्म में आरोहण के एक सार्वभौमिक राजमार्ग की ओर इशारा करता है, परन्तु मानव जाति को एक नित्य प्रयोजनीय प्रविधि भी प्रदान करता है जिसके अभ्यास एवं गुरु की सहायता के द्वारा भक्त परमेश्वर के राज्य में पुनः प्रविष्ट हो सकता है। एक सैद्धांतिक मार्ग केवल दूसरे मार्ग की ओर ले जाता है, परन्तु क्रियायोग का कोई भी सच्चा साधक पाता है कि यह परमेश्वर के राज्य तक ले जाने वाला सबसे छोटा रास्ता तथा सबसे तेज़ वाहन है।
एक नास्तिक भी उस निरंतर बढ़ते आनंद को नकार नहीं सकता जो क्रिया के नियमित अभ्यास से अन्तर् में प्रस्फुटित होता है। जब मैं शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत था, तब मैंने इस विधि का प्रयोग अपने स्कूल में संदेही छात्रों पर किया और मैंने पाया कि वे मेरे शब्दों द्वारा नहीं, परन्तु इसके नियमित अभ्यास से उत्पन्न नित्य आह्लादकारी परिणामों से परिवर्तित हो गए।
अपने सैद्धांतिक रूप में धर्म केवल आंशिक रूप से संतोषजनक है। यह कभी भी पूरी तरह से विश्वास उत्पन्न नहीं करता। अपने गुरुजी के जीवन पथ का अनुसरण करने के लिए उनके ज्ञानपूर्ण शब्दों ने मेरे मन को केवल आंशिक रूप से जीत लिया था। परन्तु मेरा ऐसा करने का मुख्य कारण था क्रियायोग का गहरा और नियमित अभ्यास जिस पर वे ज़ोर देते थे, और जिसके फलस्वरूप मैं आनंद की असीम महातरंगों पर तैरने में सक्षम हो पाया। मैं दुनिया के सामने यह घोषणा कर रहा हूँ कि लाहिड़ी महाशय की इस विधि ने मुझे निरंतर अधिकाधिक आनंद दिया है; और मेरा पूरा विश्वास है कि यह उन सभी में उसी परमानंद को उत्पन्न करेगी, जो गंभीरता और नियमित रूप से इसका अभ्यास करेंगे, चाहे उनका स्वभाव कैसा भी हो।
प्राणायाम का क्रियायोग विज्ञान
किसी भी धर्म के किसी भी भक्त को, बिना परखे विश्वासों और सिद्धांतों के द्वारा संतुष्ट नहीं होना चाहिए बल्कि, आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के लिए व्यावहारिक प्रयास करने चाहिए। ब्रह्म के साथ मिलन तभी संभव है जब भक्त, औपचारिक पूजा की सतही विधि या अप्रभावी “मौन” के अभ्यास को त्याग कर, आत्म-साक्षात्कार की किसी वैज्ञानिक प्रविधि का अभ्यास शुरू करता है।
केवल मानसिक ध्यान द्वारा व्यक्ति इस लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकता। ऐसी गहरी एकाग्रता जो श्वास, प्राण-शक्ति और इन्द्रियों से मन को पृथक् करती है तथा जो अहं को आत्मा से जोड़ती है, केवल वही आत्म-साक्षात्कार रूपी ईश्वरीय ज्ञान को उत्पन्न करने में सक्षम है।
प्राण-शक्ति, जड़-सृष्टि और परमात्मा के बीच की कड़ी है। बहिर्मुखी होकर, यह इन्द्रियों के छद्म-आकर्षक जगत् को प्रकट करती है। अंतर्मुखी हो जाने पर यह चेतना को ईश्वर के सदा-संतुष्टिकारी परमानंद की ओर खींचती है।
दो व्यक्ति अलग-अलग कमरों में ध्यान कर रहे थे। प्रत्येक कमरे में एक टेलीफ़ोन था। दोनों कमरों में टेलीफ़ोन बजा। एक व्यक्ति ने बौद्धिक हठ के साथ स्वयं से कहा : “मैं इतनी गहराई से ध्यान करूँगा कि मैं टेलीफ़ोन की घंटी सुन ही नहीं सकूँ!” यह सच है कि बाहरी शोर के बावजूद वह अपने अंतर् में ध्यान लगाने में सफल हो सकता है; परन्तु वह व्यर्थ में अपने कार्य को जटिल बना रहा है। ऐसे व्यक्ति की एक ज्ञानयोगी से तुलना की जा सकती है जो दृष्टि, ध्वनि, गंध, स्वाद, और स्पर्श रूपी टेलीफ़ोनों के अंतहीन संदेशों की उपेक्षा करते हुए, और प्राण-शक्ति के बाहर की ओर खिंचाव की भी उपेक्षा करते हुए, ईश्वर पर ध्यान लगाने की चेष्टा करता है।
हमारे उदाहरण में दूसरे व्यक्ति को टेलीफ़ोन के कर्कश कोलाहल की उपेक्षा करने की अपनी शक्ति के बारे में कोई भ्रम नहीं था। उसने बुद्धिमानी से बिजली का प्लग खींच कर टेलीफ़ोन को अलग निकाल दिया। उसकी तुलना एक क्रियायोगी से की जा सकती है जो ध्यान के दौरान संवेदी बाधाओं को रोकने के लिए प्राण-शक्ति को इन्द्रियों से हटा देता है; फिर वह इसके प्रवाह को वापस उच्चतर केन्द्रों की ओर मोड़ता है।
ध्यान करता भक्त इन दो जगतों के बीच जूझता रहता है — एक तरफ परमेश्वर के राज्य में प्रवेश के लिए प्रयासरत रहता है परन्तु दूसरी तरफ इन्द्रियों के साथ युद्ध में व्यस्त रहता है। प्राणायाम की वैज्ञानिक प्रविधि की सहायता से योगी अंततः उस बहिर्मुखी प्राण-शक्ति को उलटने में सफल होता है जिसने उसकी चेतना को श्वास एवं हृदय की कार्यशीलता में तथा विषयों में फँसे प्राण–प्रवाहों में बहिर्मुखी बना रखा था। वह आत्मा व परमात्मा के नैसर्गिक आंतरिक शांति साम्राज्य में प्रवेश करता है।
संवेदी (sensory) और मोटर (motor) तंत्रिकाओं से मन और प्राण-शक्ति को वापस हटा कर, योगी उन्हें मेरुदण्ड के द्वारा मस्तिष्क में, और फिर अनन्त प्रकाश में ले जाता है। यहाँ मन एवं प्राण-शक्ति, मस्तिष्क में अभिव्यक्त ब्रह्म के शाश्वत ज्ञान के साथ एक हो जाते हैं।
औसत व्यक्ति की चेतना का केन्द्र उसका शरीर और बाहरी दुनिया होता है। शरीर और सांसारिक आशाओं एवं भयों के प्रति अनासक्ति के द्वारा योगी अपनी चेतना के केन्द्र को स्थानांतरित करता है। हृदय एवं श्वास को शांत कर, चेतना को शरीर से बांधने वाली प्राण-शक्तियों का सचेत नियंत्रण करने वाली किसी ऐसी प्रविधि (जैसे क्रियायोग) के अभ्यास द्वारा योगी शाश्वत ब्रह्मज्ञान में स्थापित हो जाता है, जो मस्तिष्क के ब्रह्म चैतन्य केन्द्र में प्रकट होता है। ऐसा योगी जो अपनी चेतना के केन्द्र को शरीर चेतना से, मस्तिष्क में ब्रह्म के सिंहासन पर स्थानांतरित कर सकता है, वह अंततः अपनी चेतना को सर्वज्ञता पर केंद्रित करता है। वह अनन्त प्रज्ञा प्राप्त करता है।
क्रिया का अभ्यास शांति और आनंद प्रदान करता है
क्रिया के अभ्यास के परिणामस्वरूप अत्यंत शांति और आनंद प्राप्त होता है। क्रिया से प्राप्त आनंद, समस्त सुखदायक भौतिक संवेदनाओं के एकत्रित आनंद से अधिक होता है। “इन्द्रिय जगत् से अनासक्त हो, योगी आत्मा के नित्य-नवीन आनंद का अनुभव करता है। आत्मा एवं परमात्मा के दिव्य मिलन में लीन हो, वह अविनाशी आनंद प्राप्त करता है।”
मैं न्यूयॉर्क में एक बहुत धनी व्यक्ति से मिला। अपने जीवन के विषय में बताते समय, वह धीरे से बोला, “मैं ऊबने की सीमा तक धनी, और बहुत ही अधिक स्वस्थ हूँ।” और उसके बात समाप्त करने से पहले ही मैंने जल्दी से कहा, “परन्तु आप ऊबने की सीमा तक प्रसन्न तो नहीं हैं! मैं आपको सिखा सकता हूँ कि किस प्रकार सदा नित्य-नवीन प्रसन्नता संपन्न व्यक्ति बनने में आप निरंतर रुचि रख सकते हैं।”
वह मेरा शिष्य बन गया। क्रियायोग के अभ्यास के द्वारा, सन्तुलित जीवन बिताते हुए और सदा अन्तर् में ईश्वर के प्रति समर्पित रहते हुए, और सदा उमड़ते हुए नित्य-नवीन आनंद के साथ उसने परिपक्व वृद्ध आयु तक जीवन जीया।
अपनी मृत्युशय्या पर उसने अपनी पत्नी से कहा, “मुझे तुम्हारे लिए अफ़सोस है — कि तुम्हें मुझे जाते हुए देखना पड़ रहा है — परन्तु मैं बहुत प्रसन्न हूँ क्योंकि मैं जगत् के प्रियतम से मिलने जा रहा हूँ। मेरी प्रसन्नता के लिए खुशी मनाओ, और दुःखी होकर स्वार्थी मत बनो। यदि तुम जान सकती कि अपने प्रियतम प्रभु से मिलने के लिए जाने पर मैं कितना प्रसन्न हूँ, तो तुम दुःखी नहीं होतीं। यह जानकर प्रसन्न रहो कि किसी दिन शाश्वत आनंद के इस उत्सव में तुम मुझसे फिर मिलोगी।”
जो लोग कभी क्रियायोग का अभ्यास किये बिना नहीं रहते, और जो ध्यान में लम्बे समय तक बैठते हैं एवं ईश्वर से तीव्रता से प्रार्थना करते हैं, वे उस चिर वांछित खज़ाने को अवश्य प्राप्त करेंगे।
क्रिया आंतरिक अंतर्ज्ञानात्मक (intuitive) मार्गदर्शन को जगाती है
क्रियायोग के विज्ञान के बारे में पहली बार दुनिया भर के पाठकों को 1946 में परमहंस योगानन्दजी की योगी कथामृत द्वारा जानकारी प्राप्त हुई। इस पुस्तक में, उन्होंने अपने गुरु के साथ वर्षों पहले हुए निम्नलिखित वार्तालाप के बारे में बताया : असाधारण गम्भीरता के साथ उन्होंने [श्रीयुक्तेश्वरजी ने] कहा :
“योगानन्द! तुम जन्म से ही लाहिड़ी महाशय के शिष्यों से घिरे रहे हो। महान् गुरु ने अपना महिमामय जीवन कुछ हद तक एकान्त में ही जीया और अपनी शिक्षाओं पर आधारित कोई संस्था या संगठन बनाने की अनुमति अपने अनुयायियों को देने से वे निरन्तर इन्कार करते रहे। फिर भी उन्होंने एक महत्त्वपूर्ण भविष्यवाणी की थी।
“उन्होंने कहा था : ‘पश्चिम में योग के प्रति गहरी रुचि पैदा होने के कारण मेरे देहत्याग के पचास वर्ष बाद मेरा एक जीवन चरित्र लिखा जाएगा। योग का संदेश सारे विश्व में फैल जाएगा। इससे सभी के एकमात्र परमपिता की प्रत्यक्ष अनुभूति पर आधारित एकता के कारण मानवजाति में विश्व बंधुत्व स्थापित होने में सहायता होगी।’
श्रीयुक्तेश्वरजी ने आगे कहा : “मेरे पुत्र योगानन्द! उस संदेश को फैलाने में और उस पवित्र जीवन चरित्र को लिखने में तुम्हें अवश्य अपने हिस्से का कार्य करना होगा।”
“1895 में लाहिड़ी महाशय ने देहत्याग किया। 1945 में उनके देहत्याग के पचास वर्ष पूरे हुए। उसी वर्ष यह पुस्तक पूरी हुई। यह संयोग देखकर मैं आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रह सकता कि 1945 के वर्ष के साथ ही क्रांतिकारी आण्विक शक्तियों का नया युग भी आरम्भ हुआ। सभी विचारी मनुष्यों का ध्यान शान्ति और विश्वबंधुत्व की अत्यंत महत्त्वपूर्ण समस्याओं की ओर अभूतपूर्व व्यग्रता के साथ लग गया है।…”
स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी ने मुझसे कहा था : “जब क्रियायोग द्वारा मन इन्द्रियजन्य विकारों से रहित हो जाता है, तब ध्यान ईश्वर का दुहरा प्रमाण प्रस्तुत कर देता है। नित्य नवीन आनंद उसके अस्तित्त्व का प्रमाण है, जो हमारे प्रत्येक अणु को भी उसकी प्रतीति करा देता है और ध्यान में हमारी प्रत्येक समस्या के लिए ईश्वर का तत्क्षण मार्गदर्शन, उसका समुचित प्रत्युत्तर, भी मिलता है।”
किसी भी भक्त को तब तक संतुष्ट नहीं होना चाहिए जब तक वह आत्मा और परमात्मा की एकात्मता को अनुभव करने के लिए अपने अंतर्ज्ञान को पर्याप्त विकसित न कर ले। निष्पक्ष आत्म-निरीक्षण और क्रियायोग जैसे गहरे ध्यान से अंतर्ज्ञान बढ़ता है।
यदि कोई भक्त हर दिन कम-से-कम छोटी अवधियों के लिए तीव्रता से ध्यान करता है, और सप्ताह में एक या दो बार तीन या चार घंटे की लंबी अवधि का गहरा ध्यान करता है, तो वह पाएगा कि उसका वह अंतर्ज्ञान पर्याप्त रूप से अति सूक्ष्म होता जा रहा है और वह आत्मा और परमात्मा के बीच हो रही आनंददायी ज्ञान की वार्ता का निरंतर बोध प्राप्त कर पा रहा है। वह एकात्मता की उस अंतरलीन अवस्था के बारे में जानेगा जिसमें उसकी आत्मा ईश्वर से “संलाप” करती है और उनके उत्तर प्राप्त करती है। ये उत्तर किसी मानवीय भाषा के उद्गारों के रूप में नहीं वरन् शब्दहीन, अंतर्ज्ञान के आदान-प्रदान के रूप में आते हैं।
उन्नत क्रियायोगी का जीवन अतीत के कर्मों से नहीं, बल्कि केवल उसकी आत्मा के निर्देशों से प्रभावित होता है।
समस्याओं एवं बुरी आदतों पर विजय प्राप्त करने की दिव्य विधि
शिष्य की समस्या चाहे जो भी हो, उसके समाधान के लिए लाहिड़ी महाशय क्रियायोग के अभ्यास का ही परामर्श देते थे।
मान लीजिए आप आर्थिक रूप से, या नैतिक रूप से, अथवा आध्यात्मिक रूप से असफल हैं। गहन ध्यान द्वारा, यह प्रतिज्ञापन करते हुए, “मैं और मेरे परमपिता एक हैं,” आप यह जान जाएंगे कि आप ईश्वर की सन्तान हैं। उस आदर्श को अपना लें। तब तक ध्यान करें जब तक आप एक परम शान्ति का अनुभव नहीं करते। जब आनंद आपके हृदय का भेदन करता है, तो समझिए कि ईश्वर ने आपके द्वारा उन्हें किए जा रहे प्रसारण का उत्तर दिया है; वे आपकी प्रार्थनाओं एवं सकारात्मक विचारों का प्रत्युत्तर दे रहे हैं। यह एक विशिष्ट और निश्चित विधि है।
पहले अपने हृदय में एक अनन्त शान्ति, और इसके बाद एक परम आनंद को अनुभव करने का प्रयास करते हुए इस विचार पर ध्यान लगाएँ, “मैं और मेरे परमपिता एक हैं।” जब उस परम आनंद का अनुभव होने लगे, तो कहें, “परमपिता, आप मेरे साथ हैं। अपने अन्तर में स्थित आपकी शक्ति को मैं आदेश देता हूँ कि वह बुरी आदतों की मेरी मस्तिष्कीय कोशिकाओं को, और पुराने प्रवृत्ति-बीजों को भस्मिभूत कर दे।” ध्यान में ईश्वर की शक्ति ऐसा कर देगी। पुरुष या स्त्री होने की संकीर्ण चेतना से खुद को छुटकारा दिलाए, यह जानें कि आप ईश्वर के बच्चे हैं। फिर मानसिक रूप से प्रतिज्ञापन करें और ईश्वर से प्रार्थना करें : “मैं अपने मस्तिष्क की कोशिकाओं को आज्ञा देता हूँ कि वे बदल जाएँ, कि वे बुरी आदतों के उन खाँचों को ध्वस्त कर दें जिन्होंने मुझे एक कठपुतली बना दिया है। हे प्रभु! अपने दिव्य प्रकाश में इन्हें भस्म कर दें।” और जब आप ध्यान, विशेष रूप से क्रियायोग की योगदा सत्संग प्रविधियों का अभ्यास करेंगे, तो आप वास्तव में देखेंगे कि परमेश्वर का प्रकाश आपको निर्मल कर रहा है।
भारत में, एक बार मेरे पास एक व्यक्ति आया जिसे अपने क्रोध पर संयम नहीं था। क्रोध में आकर अपने अफ़सरों को थप्पड़ मारने में उसे महारथ हासिल थी। इस कारण वह एक के बाद एक नौकरियों से हाथ धोता रहा। वह बेकाबू होकर इतना गुस्सैल हो गया कि अगर वह किसी से तंग हो जाता तो उसके हाथ में जो कुछ आ जाए वही उठा कर मार देता था। उसने मुझसे सहायता मांगी। मैंने उससे कहा, “अगली बार जब तुम्हें गुस्सा आए तो एक से लेकर सौ तक गिनना।” उसने कोशिश तो की, परन्तु वह मेरे पास वापस आया और बोला, “जब मैं ऐसा करता हूँ तब तो मुझे और ज़्यादा गुस्सा आने लगता है। जब मैं गिनती कर रहा होता हूँ तो उस समय मैं गुस्से के मारे अन्धा हो जाता हूँ कि मुझे इतनी देर इन्तज़ार करना पड़ रहा है।” उसकी हालत बहुत ही निराशाजनक प्रतीत हो रही थी।
तब मैंने उसे क्रियायोग का अभ्यास करने के लिए कहा, इस निर्देश के साथ कि : “क्रिया के अभ्यास के बाद, ऐसा सोचो कि ईश्वर का दिव्य प्रकाश तुम्हारे मस्तिष्क में प्रवेश कर रहा है, उसे आराम दे रहा है, तुम्हारी तंत्रिकाओं को शान्त कर रहा है, तुम्हारे संवेगों को शान्त कर रहा है, क्रोध को पूरी तरह से मिटा रहा है और एक दिन तुम्हारे क्रोध के ये दौरे चले जाएंगे।” उसके थोड़े दिन बाद ही वह पुनः मेरे पास आया और इस बार उसने कहा, “मैं क्रोध की आदत से मुक्त हूँ। आपका कितना आभारी हूँ मैं!”
मैंने उसकी परीक्षा लेने का निश्चय किया। उससे झगड़ा मोल लेने के लिए मैंने कुछ लड़कों को इकट्ठा किया। जिस रास्ते से वह रोज़ाना गुज़रता था, उसके किनारे बने एक पार्क में मैं गया ताकि मैं नज़ारा ले सकूँ। उन लड़कों ने झगड़ा करने के लिए उसे उकसाने का बार-बार प्रयास किया, पर उस व्यक्ति ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। उसने अपनी शान्ति बनाए रखी।
ईश्वर के साथ समस्वरता के द्वारा आप अपनी अवस्था को एक नश्वर जीव से एक अमर प्राणी में बदल सकते हैं। जब आप ऐसा करेंगे, आपकी सीमितताओं के सभी बंधन टूट जाएंगे। यह एक बहुत ही महान् नियम है जिसे याद रखना चाहिए। जैसे ही आपका ध्यान केन्द्रित होता है, सभी शक्तियों की शक्ति — ईश्वर — आपकी सहायता के लिए आएंगे और इसके साथ ही आप आध्यात्मिक, मानसिक और भौतिक सफलता प्राप्त कर सकेंगे।
परिपूर्ण प्रेम की खोज
सबसे महान् प्रेम जो आप अनुभव कर सकते हैं वह ध्यान में ईश्वर के साथ एकत्व में ही प्राप्त किया जा सकता है। आत्मा और परमात्मा के बीच का प्रेम पूर्ण प्रेम है-वह प्रेम जिसे आप सब खोज रहे हैं।… यदि आप गहनता से ध्यान करेंगे तो एक ऐसा प्रेम आप पर छा जाएगा जो अवर्णनीय है और आप दूसरों को वह विशुद्ध प्रेम देने में सक्षम हो जाएंगे। …जब आप उस दिव्य प्रेम का अनुभव करेंगे, तब आप फूल और जानवर में, एक मनुष्य और दूसरे मनुष्य में कोई अंतर नहीं देखेंगे। आप सारी प्रकृति के साथ एकात्मता स्थापित करेंगे और समस्त मानवजाति से समान रूप से प्रेम करेंगे।
भय और असुरक्षा से मुक्ति
भय की समाप्ति ईश्वर के संपर्क से ही आती है, अन्य किसी भी विधि से नहीं। तब इंतज़ार क्यों? योग के द्वारा आप उनसे वह संपर्क स्थापित कर सकते हैं।…जब आप ईश्वर को पा लेंगे तब आपको कितना अधिक संबल और निर्भयता की प्राप्ति होगी! तब किसी चीज़ का फर्क नहीं पड़ेगा, कुछ भी आपको कभी भी भयभीत नहीं कर पाएगा।
आपमें से प्रत्येक के लिए मेरी प्रार्थना है कि आज से आप ईश्वर के लिए सर्वोच्च प्रयास करेंगे, और उस प्रयास का त्याग आप तब तक नहीं करेंगे जब तक कि आप प्रभु में स्थापित नहीं हो जाते। यदि आप प्रभु से प्रेम करते हैं तो आप क्रिया का अत्यधिक भक्ति और निष्ठा के साथ अभ्यास करेंगे। प्रभु को क्रियायोग और प्रार्थना द्वारा निरन्तर खोजें; प्रसन्नचित्त बनें, क्योंकि भगवद्गीता का उद्धरण देते हुए महावतार बाबाजी ने एक बार कहा था : “इस सच्चे धर्म का थोड़ा-सा भी अभ्यास (जन्म-मृत्यु के चक्र में निहित) महान् भय से तुम्हारी रक्षा करेगा।”
* जॉन “सात सितारों का रहस्य” और “सात चर्चों” की बात करते हैं (बाइबिल में प्रकाशना ग्रंथ 1:20); ये प्रतीक मेरुदण्ड के सात सूक्ष्म चक्रों की ओर इशारा करते हैं। बाइबिल के इस न समझे गए अध्याय में जो गूढ़ और दुर्बोध-शब्द चित्रण प्रचुर मात्रा में दिया गया है, वह उन अनुभवों की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है, जो तब आते हैं जब प्राण-शक्ति और चेतना के ये चक्र खुलते हैं (“सात मुहरों से बंद किताब” बाइबिल में प्रकाशना ग्रंथ 5:1)।
योगदा सत्संग पत्रिका अक्टूबर-दिसंबर 2011 से उद्धृत