भारत में परमहंस योगानन्दजी के आश्रमों की यात्रा के दौरान (अक्टूबर 1963 से मई 1964), श्री दया माताजी ने हिमालय की उस गुफ़ा की पावन यात्रा की जो महावतार बाबाजी की सशरीर उपस्थिति द्वारा पवित्र की गई थी। इस यात्रा के बाद कुछ समय तक दया माताजी सार्वजनिक सभाओं में अपने इस अनुभव की चर्चा करने से इंकार करती रहीं। परन्तु जब एंसिनीटस में इस सत्संग के समय एक भक्त माताजी से बाबाजी की गुफ़ा की उनकी यात्रा के बारे में पूछा, तो ईश्वरीय इच्छा ने उन्हें इस अनुभव को बताने के लिए प्रेरित किया। उनके शब्दों में इस अनुभव का विवरण यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है, ताकि इससे सब प्रेरणा प्राप्त कर सकें।
सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप, आश्रम केन्द्र, एंसिनीटस, कैलिफोर्निया, में 24 अगस्त, 1965 को दिए गए एक सत्संग में से उद्धृत
परमहंस योगानन्दजी और महावतार बाबाजी के बीच एक अत्यंत विशेष संबंध था। गुरुदेव प्राय: बाबाजी के बारे में, तथा उस घटना के बारे में बताया करते थे जब उनके अमेरिका आगमन के लिए भारत छोड़ने से एक दिन पूर्व, कोलकाता में महावतार बाबाजी ने उन्हें दर्शन दिए थे। जब कभी भी गुरुदेव उस महान् अवतार का उल्लेख करते, तो वह इतने भक्ति-भाव के साथ होता था, इतने सम्मान की भावना के साथ होता था कि हमारे हृदय दिव्य प्रेम और ईश-ललक से भर जाते थे। कभी-कभी तो मुझे ऐसा लगता था कि मेरा हृदय फट जाएगा।
गुरुदेव के देहत्याग के बाद बाबाजी का चिंतन मेरी चेतना में उत्तरोत्तर बढ़ता गया। मैं सोचा करती थी कि अपने अन्य प्रिय परम गुरुओं के प्रति यथोचित प्रेम और आदर होते हुए भी, बाबाजी के प्रति मेरे हृदय में एक विशेष भाव क्यों था; मुझे याद नहीं पड़ता था कि मुझे उनसे कोई ख़ास प्रत्युत्तर प्राप्त हुआ हो जिसने शायद मुझमें उनके साथ निकटता के इस स्पष्ट भाव को जाग्रत किया था। स्वयं को पूर्णतः अयोग्य समझते हुए मैंने बाबाजी के पवित्र सान्निध्य की व्यक्तिगत अनुभूति की कभी आशा नहीं की थी। मैं सोचती थी कि सम्भवतः अगले किसी जन्म में यह आशीर्वाद मुझे प्राप्त हो जाए। मैंने कभी भी आध्यात्मिक अनुभवों की न तो कोई माँग की है और न ही कोई लालसा रखी है। मैं बस ईश्वर से प्रेम करना चाहती हूँ और उनके प्रेम को महसूस करना चाहती हूँ। मेरा आनन्द तो ईश्वर से प्रेम करने में ही है; मुझे जीवन में अन्य कोई उपलब्धि प्राप्त करने की इच्छा नहीं है।
इस बार जब हम भारत गए, तो मेरे साथ गए दो भक्तों ने बाबाजी की गुफ़ा की यात्रा करने की इच्छा व्यक्त की। पहले तो मुझे कोई व्यक्तिगत इच्छा नहीं हुई, परन्तु फिर भी हमने पूछ-ताछ की। यह गुफ़ा हिमालय की पहाड़ियों में रानीखेत से आगे, नेपाल की सीमा के समीप स्थित है। दिल्ली में अधिकारियों ने हमें बताया कि उत्तरी सीमा क्षेत्र विदेशियों के लिए वर्जित है; तब ऐसा प्रतीत हुआ कि यह यात्रा सम्भव न हो सकेगी। मैं निराश नहीं हुई। मैंने इतने चमत्कार होते देखे हैं कि मुझे इस बात पर कोई संदेह नहीं कि जगन्माता में वह सब सम्भव करने की शक्ति है जिसकी वे इच्छा कर लेती हैं। और यदि उनकी ऐसी इच्छा नहीं थी कि यह यात्रा हो, तो फिर उनकी इच्छा के आगे मेरी अपनी कोई इच्छा नहीं थी।
एक या दो दिन बाद योगाचार्य बिनय नारायण ने मुझे बताया कि उन्होंने उत्तर प्रदेश राज्य के मुख्यमंत्री से इस विषय में सम्पर्क किया है, बाबाजी की गुफ़ा इसी राज्य में स्थित है। मुख्यमंत्रीजी ने हमारी टोली को उस क्षेत्र की यात्रा करने की विशेष अनुमति प्रदान कर दी थी। दो दिन के अन्दर हम यात्रा के लिए तैयार हो गए। पहाड़ों के ठण्डे वातावरण के लिए हमारे पास उपयुक्त गर्म कपड़े थे ही नहीं, केवल सूती साड़ियाँ और ऊनी शॉल ही थे। अपने उत्साह में आकर हम थोड़े से दु:साहसी बन गए थे!
हम उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के लिए रेलगाड़ी पर सवार हो गए, और लगभग शाम के आठ बजे राज्यपाल के निवास स्थान पर पहुँच गए। हमने राज्यपाल, मुख्यमंत्रीजी, एवं अन्य अतिथियों के साथ रात का भोजन किया। दस बजे हम मुख्यमंत्रीजी के साथ काठगोदाम जाने वाली रेलगाड़ी पर सवार हो गए। तड़के ही हम इस छोटे-से स्टेशन पर पहुँच गए। अभी वहाँ से कार द्वारा द्वाराहाट के पहाड़ी शहर की यात्रा बाकी थी जहाँ पर हमारे जैसे तीर्थ-यात्रियों के लिए ठहरने की व्यवस्था होती है।
बाबाजी द्वारा दिव्य संपुष्टि
कुछ समय के लिए काठगोदाम स्टेशन पर मैं अकेली बैठी थी। अन्य भक्त कारों की प्रतीक्षा में बाहर चले गए थे। मैं गहन भक्ति-भाव से भगवान् के नाम का बारम्बार उच्चारण कर रही थी, जिसे भारत में जप-योग कहते हैं। इसके अभ्यास से संपूर्ण चेतना धीरे-धीरे अन्य सभी विषयों से हट कर केवल एक ही विचार में निमग्न हो जाती है। मैं बाबाजी के नाम का जाप कर रही थी। मेरे हर विचार में केवल बाबाजी ही थे। मेरा हृदय एक अवर्णनीय रोमांच से फटा जा रहा था।
अचानक मैंने इस संसार की पूरी सुध-बुध खो दी। मेरा मन चेतना की एक अलग ही अवस्था में पूर्णतः अन्तर्मुखी हो गया। एक अति मधुर आनन्द की समाधि अवस्था में मैंने बाबाजी के दर्शन किए। तब मैं समझी कि अविला की संत टेरेसा (St. Teresa of Avila) का क्या अभिप्राय था जब उन्होंने निराकार क्राइस्ट के “दर्शन” करने की बात कही थी : निराकार क्राइस्ट, अर्थात् आत्मा के रूप में अभिव्यक्त ईश्वर का व्यक्तिगत स्वरूप, जो केवल विचार तत्व का आवरण धारण किए हुए है। यह ‘दर्शन’ एक ऐसी अनुभूति है जिसकी स्पष्टता, भौतिक वस्तुओं की स्थूल रूपरेखाओं से और अधिचेतन अनुभूतियों से भी अधिक सटीक और जीवंत होती है। मैं मन-ही-मन बाबाजी के आगे नतमस्तक हुई और उनकी चरणधूलि ली।
गुरुदेव ने हममें से कुछ भक्तों से कहा था, “तुम्हें हमारी संस्था के नेतृत्व के बारे में कभी-भी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। बाबाजी ने उन लोगों को पहले ही चुन रखा है जो इस कार्य का मार्ग-दर्शन करने के लिए नियत हैं।” जब निदेशक बोर्ड (Board of Directors) द्वारा मुझे चुना गया, तो मैंने प्रश्न किया, “मुझे क्यों?” अब मैं इस बारे में बाबाजी से प्रार्थना कर रही थी : “उन्होंने (बोर्ड ने) मुझे चुना। मैं तो अत्यंत अयोग्य हूँ। यह कैसे सम्भव है?” मैं मन-ही-मन उनके चरणों पर सिसक रही थी।
कितनी मधुरता से उन्होंने उत्तर दिया, “मेरी बच्ची, तुम्हें अपने गुरु पर संशय नहीं करना चाहिए। उन्होंने सत्य कहा था। उन्होंने तुम से जो कहा वह सच है।” जैसे ही बाबाजी ने ये शब्द कहे, एक आनन्दमय शांति मुझ पर छा गई। मैं नहीं जानती कितनी देर तक मेरी पूरी चेतना उस शांति में निमग्न रही।
धीरे-धीरे मुझे आभास हुआ कि टोली के अन्य सदस्य कमरे में वापस आ गए थे। जब मैंने अपनी आँखें खोली तो मैंने अपने आस-पास के परिवेश को एक नई दृष्टि से देखा। मुझे याद है कि मैं अचरज के साथ ऐसा बोल पड़ी, “अरे हाँ! मैं तो पहले भी यहाँ आ चुकी हूँ।” एक ही क्षण में हर चीज़ जानी-पहचानी लगने लगी, पूर्वजन्म की स्मृतियाँ पुनः जागृत हो गईं!
जिन कारों से हमें पहाड़ी यात्रा करनी थी, वे तैयार थीं। हम उनमें बैठ गए और पहाड़ी सड़क की घुमावदार यात्रा आरम्भ हुई। प्रत्येक स्थान, प्रत्येक दृश्य मेरे लिए परिचित था। काठगोदाम में हुए अनुभव के बाद बाबाजी की उपस्थिति मेरे साथ इतनी प्रबल रूप से बनी रही कि जहाँ कहीं भी मैं देखती, वे वहीं उपस्थित प्रतीत होते। हम कुछ समय रानीखेत में रुके, वहाँ नगर के पदाधिकारियों ने हमारा स्वागत किया। उन्हें मुख्यमंत्रीजी द्वारा हमारी यात्रा की पूर्व सूचना दे दी गई थी।
अंततः हम द्वाराहाट के छोटे-से दूरवर्ती शहर पहुँच गए, जो हिमालय की ऊँची पहाड़ियों में स्थित है। हम सरकारी डाक बंगले में ठहर गए, तीर्थ यात्रियों के लिए एक छोटा साधारण-सा बंगला। उस रात आस-पास के गाँवों से कई लोग हमसे मिलने आए। उन्हें ख़बर पहुँच गई थी कि पश्चिम से कुछ तीर्थ यात्री पवित्र गुफ़ा के दर्शन के लिए आए हुए हैं। इस क्षेत्र में अनेक व्यक्ति बाबाजी की चर्चा करते हैं, जिनके नाम का अर्थ है “पूजनीय पिता”। उन्होंने हम पर प्रश्नों की झड़ी लगा दी, और हमने मिल कर सत्संग किया, ठीक वैसे ही जैसे कि हम अभी कर रहे हैं। उनमें से अनेक अंग्रेज़ी समझते थे, और जो नहीं जानते थे उनके लिए पास बैठा कोई-न-कोई व्यक्ति अनुवाद कर देता था।
एक भविष्य सूचक दिव्य-दर्शन
सत्संग समाप्त होने के बाद, जब गाँववासी चले गए, तो हम ध्यान करने बैठे, और फिर अपने गर्म बिस्तरबंदों (sleeping bags) में घुस कर सो गए। अर्धरात्रि में मुझे एक अधिचेतन अनुभव हुआ। अचानक ही एक विशाल काला बादल मुझे निगलने का प्रयास करते हुए मेरे ऊपर उमड़ पड़ा। जैसे ही ऐसा हुआ, में ईश्वर से उनकी सहायता के लिए चीख पड़ी, और मेरी आवाज़ सुनकर मेरे साथ कमरे में सो रही आनन्द माँ और उमा माँ जाग गईं। वे घबरा गईं और पूछने लगीं कि क्या हुआ। मैंने कहा, “मैं इसके बारे में अभी बात नहीं करना चाहती मैं ठीक हूँ, तुम लोग सो जाओ।” ध्यान के अभ्यास द्वारा हममें से हर व्यक्ति में अन्तर्ज्ञान की सर्वज्ञता की शक्ति विकसित हो जाती है। मैं अन्तर्ज्ञान द्वारा समझ गई थी कि इस संकेतात्मक अनुभव द्वारा ईश्वर मुझे क्या बताना चाहते हैं। यह एक गंभीर बीमारी की भविष्यवाणी थी जिसे मुझे जल्दी ही झेलना था; और यह इस बात की भी सूचक थी कि समस्त मानवजाति को एक अत्यन्त कठिन समय का सामना करना पड़ेगा, जिसमें अनिष्टकारी शक्तियाँ संसार को निगलने का प्रयत्न करेंगी। चूँकि बादल ने मुझे पूरी तरह ढँका नहीं था — ईश्वर के मेरे विचारों द्वारा वह पीछे हट गया था — अतः उस दिव्य दर्शन का अर्थ यह था कि मैं व्यक्तिगत संकट से उबर जाऊँगी, और ऐसा ही हुआ। इसी प्रकार उस दर्शन ने यह दिखाया कि संसार भी भयावह काले बादल रूपी कर्मों से अंततः उबर जाएगा, परंतु पहले मानव जाति को ईश्वर की ओर मुड़कर अपना कर्त्तव्य निभाना होगा।
अगले दिन प्रातः नौ बजे हमने गुफ़ा की ओर अपनी यात्रा प्रारम्भ की। यात्रा के इस चरण में अधिकतर रास्ता हमें पैदल ही तय करना पड़ा, परन्तु कभी-कभी हम घोड़े पर अथवा डाँडी में भी चले। यह लकड़ी की बनी छोटी पालकी जैसी होती है जो रस्सियों के सहारे दो बल्लियों से लटकी होती है, और इसे चार लोग अपने कंधों पर उठाते हैं।
हम चढ़ाई चढ़ते गए, चढ़ते गए, चढ़ते गए; कभी-कभी तो हमें वास्तव में रेंग रेंग कर चलना पड़ा क्योंकि चढ़ाई एकदम खड़ी थी। रास्ते में हम केवल थोड़े-थोड़े समय के लिए दो डाक बंगलों पर रुके। दूसरा डाक बंगला सरकारी था, जहाँ हमें गुफ़ा से वापस आते समय रात बितानी थी। शाम के लगभग पांच बजे जब पहाड़ों के पीछे सूरज डूबने लगा, हम गुफ़ा पहुँच गए। यह सूर्य का प्रकाश था या किसी अन्य शक्ति का प्रकाश? एक स्वर्णिम आभा की जगमगाहट ने पूरे वातावरण को और हर चीज़ को आच्छादित कर दिया था।
इस क्षेत्र में अनेक गुफ़ाएँ हैं। इनमें से एक का मुख खुला है, जो प्राकृतिक शक्तियों के प्रभावों के कारण एक विशाल चट्टान के फटने से बना है। शायद यह वही चट्टान है जिसके किनारे बाबाजी खड़े थे जब लाहिड़ी महाशय ने उन्हें पहली बार देखा था। वहीं एक और गुफ़ा इसमें प्रवेश करने के लिए आपको अपने हाथों और घुटनों के बल रेंग कर जाना पड़ता है। यह वही गुफ़ा है जिसके बारे में कहा जाता है कि बाबाजी इसमें रहते थे। सौ वर्ष पूर्व जब बाबाजी इसमें रहते थे, तब से लेकर अब तक प्राकृतिक शक्तियों के कारण इसकी आकृति, विशेषकर इसके प्रवेशद्वार में परिवर्तन आ गया है। इस गुफ़ा के भीतरी कक्ष में हम लम्बे समय तक गहन ध्यान में बैठे, और गुरुदेव के सभी भक्तजनों एवं समस्त मानव जाति के लिए प्रार्थना की। इससे पूर्व निःशब्दता ने इतना कभी नहीं कहा। मौन की वाणी स्पष्ट रूप से ईश्वर की विद्यमानता का उद्घोष कर रही थी। आत्मानुभूति की तरंगें मेरी चेतना में प्रवाहित होने लगीं; और उस दिन की गई सभी प्रार्थनाओं के प्रत्युत्तर कालान्तर में मुझे प्राप्त हो गए।
अपनी यात्रा के एक स्मृति-चिन्ह के रूप में, और गुरुदेव के सभी भक्तों के महावतार बाबाजी के प्रति आदर एवं श्रद्धा के प्रतीक रूप में हमने गुफ़ा में एक रूमाल छोड़ दिया था जिस पर सेल्फ़-रियलाइजे़शन [योगदा सत्संग] का प्रतीक चिह्न सिला हुआ था।
अंधेरा होने पर हमने अपनी वापसी यात्रा प्रारम्भ की। अनेक गाँववासी हमारी तीर्थ यात्रा में सम्मिलित हो गए थे, और कुछ ने बुद्धिमानी से अपने साथ मिट्टी के तेल की कुछ लालटेनें ले ली थीं। मुक्त कण्ठ से भजन और कीर्तन करते हुए हम लोग पर्वत से नीचे उतर आए। लगभग नौ बजे हम इस क्षेत्र के एक अधिकारी के सादे से घर पहुँच गए, जो गुफ़ा तक हमारे साथ आये थे। यहाँ उन्होंने हम से विश्राम करने के लिए आग्रह किया था। घर के बाहर एक आग जलाई गई जिसके चारों ओर हम बैठ गए, और हमें भुने हुए आलू, रोटी एवं चाय परोसे गए। रोटी को अंगारों पर सेंका गया था, और यह देखने में एकदम काली थी। मैं कभी नहीं भूल सकती कि पवित्र हिमालय की रात की ठंडी ताज़ी हवा में वह भोजन कितना स्वादिष्ट लग रहा था।
जब हम सरकारी डाक बंगले पर पहुँचे तो आधी रात हो चुकी थी। गुफ़ा की ओर जाते समय हम यहाँ पर रुके थे। यहीं पर हमें रात बितानी थी — अब जो भी बची थी! बाद में हम से कई लोगों ने कहा कि ईश्वर पर हमारा पूर्ण विश्वास ही हमें उस क्षेत्र से रात को सुरक्षित वापस ले आया। वह क्षेत्र ख़तरनाक साँपों, बाघों और तेंदुओं से भरा हुआ है। अंधेरा होने के बाद वहाँ रहने की कोई सोच भी नहीं सकता। परन्तु कहते हैं न कि जिसके बारे में पता न हो उसका भय भी नहीं होता, और हमें भय का विचार भी नहीं आया। यदि हम ख़तरों से अवगत भी होते, तो भी मुझे पूरा विश्वास है कि हम सुरक्षित अनुभव करते। परन्तु मैं यही सलाह दूँगी कि रात के समय यह यात्रा न करें!
काठगोदाम में मुझे बाबाजी का जो अनुभव हुआ था, वह उस पूरे दिन मेरी चेतना में बना रहा; और निरंतर यह भी आभास होता रहा कि मैं अतीत के दृश्यों को पुनः जी रही हूँ।
“मेरा स्वरूप प्रेम है”
उस रात मैं सो न सकी। जैसे ही मैं ध्यान में बैठी कि अचानक संपूर्ण कक्ष सुनहरे प्रकाश से जगमगा उठा। फिर वह प्रकाश चमकीला नीला हो गया, और एक बार फिर हमारे प्रिय बाबाजी की उपस्थिति का आभास होने लगा! इस बार उन्होंने कहा, “मेरी बच्ची, यह जान लो कि मुझे खोजने के लिए भक्तों को इस स्थान पर आने की आवश्यकता नहीं है। जो कोई भी मुझ में विश्वास करते हुए और मुझे पुकारते हुए गहन भक्ति-भाव के साथ अपने अन्तर में जाएगा, उसे मेरा प्रत्युत्तर प्राप्त होगा।” आप सब के लिए उनका यह संदेश था। यह कितना सत्य है! यदि आप केवल विश्वास करें, यदि आप में श्रद्धा हो और आप अन्तर्मन से बाबाजी को पुकारें, तो आप उनके प्रत्युत्तर का अनुभव करेंगे।
फिर मैंने कहा, “बाबाजी, मेरे प्रभु, हमारे गुरुजी ने हमें सिखाया कि जब कभी हम ईश्वर के ज्ञान स्वरूप को अनुभव करना चाहें तो हमें श्रीयुक्तेश्वरजी से प्रार्थना करनी चाहिए, क्योंकि वे ज्ञान के मूर्त्त रूप हैं; और जब कभी हम परमानन्द का अनुभव करना चाहें, तो लाहिड़ी महाशय के साथ तादात्म्य स्थापित करना चाहिए। आपकी प्रकृति क्या है?” जैसे ही मैंने यह कहा, ओह, मैंने अनुभव किया कि जैसे मेरा हृदय प्रेम से फटा जा रहा है, इतना प्रेम — मानो हज़ारों लाखों प्रेम एक में ही समाहित हो गए हों! वे केवल प्रेम हैं; उनका पूरा स्वरूप ही प्रेम है — दिव्य प्रेम।
यद्यपि यह मौन वार्त्तालाप था, तथापि इससे अधिक सारगर्भित उत्तर की मैं कल्पना नहीं कर सकती थी; परंतु बाबाजी ने इसे और अधिक मधुर एवं अर्थपूर्ण बना दिया जब उन्होंने इसमें ये शब्द जोड़ दिए : “मेरा स्वरूप प्रेम है; क्योंकि यह केवल प्रेम ही है जो इस संसार को बदल सकता है।”
महावतार बाबाजी की उपस्थिति मुझे दिव्य प्रेम में आनन्दपूर्वक ओतप्रोत करते हुए मन्द होते नीले प्रकाश में धीरे-धीरे विलुप्त हो गई।
मुझे याद है कि गुरुदेव ने अपना शरीर छोड़ने से कुछ समय पहले मुझसे क्या कहा था। मैंने उनसे पूछा था, “गुरुजी, प्रायः जब किसी संगठन का संस्थापक चला जाता है तब उस संगठन का विकास नहीं बल्कि ह्रास होने लगता है। आपके बिना हम इसे कैसे चलाएँगे? जब आप शरीर में नहीं होंगे, तब हमें कौन प्रोत्साहित करेगा और हमें संगठित रखेगा?” मैं उनका उत्तर कभी भूल नहीं सकूँगी, “इस संसार से मेरे जाने के बाद केवल प्रेम ही मेरा स्थान ले सकता है। ईश्वर के प्रेम में दिन-रात इतनी मदमस्त रहो कि तुम्हें और कुछ न सूझे। और यही प्रेम सब को दो।” बाबाजी का भी यही संदेश है — इस युग के लिए संदेश।
ईश्वर के लिए प्रेम, और सबमें ईश्वर को देखते हुए सभी से प्रेम करना वह शाश्वत संदेश है जिसका उपदेश पृथ्वी पर अवतरित सभी महान् सन्तों ने दिया है। इस सत्य को हमें अपने जीवन में अवश्य अपनाना चाहिए। आज के समय में यह नितान्त आवश्यक है जब लोगों को कल का भरोसा नहीं है, जब ऐसा लगता है कि घृणा, स्वार्थपरायणता, लोभ संसार को नष्ट कर सकते हैं। हमें प्रेम, करुणा, और सौहार्द रूपी शस्त्रों से लैस दिव्य योद्धा बनना होगा; इसकी आज अत्यन्त आवश्यकता है।
अत: मेरे प्रियजनों, मैंने इस अनुभव को आपके साथ बाँटा ताकि आप जान सकें कि बाबाजी अमर हैं। वे वास्तव में हैं; और दिव्य प्रेम का उनका संदेश शाश्वत है। मैं साधारण मानवीय संबंधों के स्वार्थी, संकुचित और अपना अधिकार जताने वाले प्रेम का उल्लेख नहीं कर रही हूँ। मेरा अभिप्राय उस प्रेम से है जो भगवान् कृष्ण अपने भक्तों को देते हैं, जो क्राइस्ट अपने भक्तों को देते हैं, जो गुरुदेव हमें देते हैं : निःशर्त दिव्य प्रेम। यही प्रेम हमें दूसरों को देना चाहिए। हम सब इसी के लिए लालायित हैं। इस कक्ष में उपस्थित हममें से एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो प्रेम के लिए, थोड़ी-सी दयालुता के लिए, और दूसरों द्वारा थोड़ा-सा समझे जाने के लिए लालायित न हो।
हम आत्मा हैं, और आत्मा का स्वरूप पूर्णता है; अतः हम कदापि किसी ऐसी वस्तु से पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो सकते जो कि पूर्ण से थोड़ी भी कम हो। परन्तु हम पूर्णता को तब तक कभी जान नहीं सकते जब तक कि हम ईश्वर को जान न लें, अपने उस प्रभु को जो पूर्ण प्रेम हैं, पिता हैं, माता हैं, हमारे सखा और प्रियतम हैं।