श्री श्री दया माताजी के लेखों से संकलित

ईश्वर को खोजने का महत्त्व

पूरा विश्व ही चाहे हमें निराश कर दे या हमारा त्याग कर दे, परन्तु यदि हमने परमेश्वर के साथ एक मधुर एवं कोमल आन्तरिक सम्बन्ध बना लिया है, तब हम स्वयं को कदापि अकेला या परित्यकत अनुभव नहीं करेंगें। यहाँ सदैव हमारे पक्ष में कोई होगा – एक सच्चा मित्र, एक सच्चा प्रेम, एक सच्चा पिता या माता। दिव्य परमेश्वर की आप जिस भी स्वरूप में धारणा करेंगे, परमेश्वर आप के लिए वैसे ही बन जाएँगे।

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प्रत्येक मानवीय हृदय में कुछ ख़ालीपन रहता है जिसे केवल परमेश्वर ही भर सकते हैं। अतः ईश्वरीय खोज को अपनी प्राथमिकता बनाएँ।

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परमेश्वर ने हम में से प्रत्येक को अंत:करण में एक शान्त मन्दिर प्रदान किया है, जहाँ कोई और प्रवेश नहीं कर सकता। वहाँ हम परमेश्वर के साथ रह सकते हैं। हमें इस के विषय में अधिक बातें करने की आवश्यकता नहीं। और यह हमें अपने प्रियजनों से दूर नहीं ले जाता, अपितु हमारे सभी सम्बन्धों को मधुर, मज़बूत और अधिक स्थायी बनाता है।

जब हम सीधे उस स्रोत के पास जाते हैं, जहाँ से समस्त प्रेम आता हैशिशु के लिए माता पिता का प्रेम, माता पिता के लिए संतानों का प्रेम, पति के लिए पत्नी का, पत्नी के लिए पति का तथा मित्र के लिए मित्र का प्रेमतब हम उस झरने से प्रेम का पान कर रहे होते हैं, जो कि समस्त कल्पनाओं से परे की संतुष्टि प्रदान करता है।

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मनुष्य को मन और देह के साथ पाँच ज्ञानेंद्रिया दी गई थीं, जिनके द्वारा वह इस सीमित जगत का बोध प्राप्त करता है, और स्वयं को इसके साथ एक समझने लगता है। परन्तु मनुष्य न तो देह है, और न ही मन; उसकी प्रकृति दिव्य चेतना, अर्थात अविनाशी आत्मा है। जितनी बार वह अपने ऐंद्रिक अनुभवों द्वारा चिरस्थायी प्रसन्नता पाने का प्रयत्न करता है, उतनी ही बार उसकी आशाएँ, उसका उत्साह, उसकी इच्छाएँ, गहन हताशा और निराशा की चट्टानों से टकरा कर नष्ट हो जाती हैं। भौतिक जगत में प्रत्येक वस्तु वास्तव में क्षणभंगुर एवम् सतत् परिवर्तनशील है। जो वस्तु परिवर्तनशीलता के अधीन है वह अपने भीतर निराशा के बीज लिए रहती है। और इसलिए सांसारिक आकांक्षाओं का हमारा यह जहाज़ कभी न कभी मोह भंग की चट्टानों के बीच फँस ही जाता है। इसलिए हमें ईश्वर की खोज करनी चाहिए, क्योंकि वह समस्त ज्ञान, समस्त प्रेम, सम्पूर्ण आनन्द व पूर्ण संतुष्टि का मूल स्रोत हैं। ईश्वर हमारे अस्तित्त्व का तथा हमारे जीवन का स्रोत हैं। और हम ईश्वर के प्रतिरूप में बनाए गये हैं। जब हम उन्हें प्राप्त कर लेंगे, हमें इस सत्य की अनुभूति हो जाएगी।

परमेश्वर के साथ एक प्रेमपूर्ण सम्बन्ध विकसित करना

परमेश्वर को न तो एक शब्द के रूप में, न ही एक अपरिचित के रूप में और न ही किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में सोचें जो कहीं किसी ऊँचे सिंहासन पर विराजमान तुम्हारा न्याय करने और तुम्हें सज़ा देने हेतु तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है। उन्हें बिल्कुल ऐसा ही सोचें, जैसा कि यदि आप ईश्वर होते तो सोचना चाहते।

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हमारी सबसे बड़ी कमज़ोरी है कि हम ईश्वर से डरे हुए हैं। हम उनके सामने उन चीज़ों को स्वीकार करने से डरते हैं, जो हमारी आत्माओं में, हमारे हृदय में, हमारे अंत:करण में हमें गहनता पूर्वक कष्ट पहुँचा रही हैं। परन्तु यह ग़लत है। दिव्य प्रियतम तो वह पहली वस्तु हैं जिन के पास आपको अपनी प्रत्येक समस्या के लिए जाना चाहिए।… क्यों? क्योंकि इससे कहीं पहले कि आप अपनी स्वयं की कमज़ोरियों को पहचान पायें, परमेश्वर उन्हें पहले से ही जानते हैं। आप उन्हें कुछ नयी चीज़ नहीं बता रहे हैं। जब आप परमेश्वर के समक्ष अपना स्वयं का बोझ हल्का करते हैं, तब आत्मा में एक अद्भुत मुक्ति का अनुभव होता है।

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परमेश्वर के साथ अपने व्यक्तिगत सम्बन्ध को मैं माता के स्वरूप के एक दिव्य व्यक्तित्व के रूप में देखना पसन्द करती हूँ। एक पिता का प्रेम अक्सर तर्क तथा सन्तान की योग्यता पर अपनी स्वीकारोक्ति प्राप्त करता है। परन्तु माता का प्रेम तो अप्रतिबंधित होता है; जहाँ तक उसकी सन्तान का सम्बन्ध है, वे तो समस्त प्रेम, दया, तथा क्षमा से भरपूर हैं।… “हम माता के स्वरूप में उनके पास एक सन्तान के रूप में जा सकते हैं, तथा हमारी योग्यता चाहे कुछ भी क्यों न हो, हम उनके प्रेम पर अपना अधिकार जता सकते हैं।”

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जब हम ईश्वर को हृदय के शान्त केन्द्र सेउन्हें जानने तथा उनके प्रेम का अनुभव करने हेतु एक सरल, निष्कपट ललक के साथ पुकारते हैंतब निश्चित रूप से हम उनके प्रत्युत्तर को पाएँगे ही। दिव्य प्रियतम की वह मधुर समीपता, तब हमारी सर्वोच्च वास्तविकता बन जाएगी। यह सम्पूर्ण परिपूर्णता को लाएगी। यह हमारे जीवनों का रुपांतरण कर देगी।

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परमेश्वर के हृदय को स्पर्श करेने हेतु, यह आवश्यक नहीं की लम्बी लम्बी प्रार्थनाएँ की जाएँ। आत्मा की गहराइयों से बारम्बार व्यक्त किया गया मात्र एक विचार, परमेश्वर के महान् प्रत्युत्तर को प्रकट कर सकता है। मैं तो यहाँ तक कि प्रार्थना शब्द का प्रयोग भी करना पसन्द नहीं करती, जो कि परमेश्वर से एक औपचारिक, एक तरफ़ा याचना का सुझाव देता है। मेरे लिए, परमेश्वर के साथ वार्त्तालाप, उनसे एक घनिष्ठ मित्र की भाँति बातें करना, अधिक स्वाभाविक, व्यक्तिगत तथा प्रार्थना का एक प्रभावशाली स्वरूप है।

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स्वयं को उनकी सन्तान, या उनके मित्र, या उनके भक्त के रूप में देखते हुए, परमेश्वर के साथ एक अधिक व्यक्तिगत सम्बन्ध स्थापित करें; हमें इस चेतना के साथ जीवन का आनन्द उठाना चाहिए कि हम अपने अनुभवों को किसी ऐसे के साथ साझा कर रहे हैं, जो कि अत्यन्त दयालु, समझदार तथा प्रेम से भरपूर है।

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जब हम सदैव इस बात की स्मृति बनाए रखने हेतु प्रयत्नशील रहते हैं कि वे हर क्षण हमारे साथ हैं, तब परमेश्वर के साथ हमारा सम्बन्ध अत्यन्त सरल तथा मधुर बन जाता है। यदि हम परमेश्वर की अपनी खोज में चमत्कारी प्रदर्शनों या असाधारण परिणामों को खोज रहे हैं, तब हम उन अनेक तरीक़ों की अनदेखी कर जाएँगे, जिनसे वे हमारे पास हर समय आते हैं।

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पूरे दिन के दौरान, जब कभी कोई भी व्यक्ति आप की सहायता हेतु, कुछ भी करता है, तब उन उपहारों की प्राप्ति में परमेश्वर के हाथ को देखें। जब कोई भी व्यक्ति, आप के बारे में, आपसे कुछ भी अच्छा कहता है, उन शब्दों के पीछे परमेश्वर की वाणी को सुनें। अपने जीवन में जब भी कोई अच्छी या सुंदर वस्तु की प्राप्ति हो, तब ऐसा अनुभव करें कि यह परमेश्वर से आ रही है। अपने जीवन की प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक घटना को वापिस परमेश्वर से जोड़ें।

ध्यान का महत्त्व

देश तथा विदेश से अनेकों लोग मेरे पास आकर कहते हैं, “आपके लिए ध्यान में अनेकों घण्टों तक निश्चल अवस्था में बैठे रहना कैसे सम्भव होता है? निश्चलता की इस अवधि में आप क्या करती हैं?” प्राचीन भारत के योगियों ने धर्म के विज्ञान को विकसित किया था। उन्होंने यह खोज निकाला था कि कुछ वैज्ञानिक तकनीकों द्वारा मन को इतना स्थिर कर सकना सम्भव है कि अशान्त विचार की कोई तरंग न तो उसे विचलित कर सके और न ही उत्तेजित। चेतना की उस स्पष्ट झील में, हम दिव्य परमेश्वर की परावर्तित छवि का अवलोकन कर सकते हैं।

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विश्व के धर्मग्रंथ कहते हैं कि हम परमेश्वर के प्रतिरूप में बने हैं। यदि ऐसा है तो हम ऐसा क्यों नहीं जानते कि हम उन जैसे ही निष्कलंक तथा अविनाशी हैं? हम ऐसी चेतनता क्यों नहीं रख पाते कि हम उनकी आत्मा के मूर्त रूप में ही बने हैं?… पुनः धर्मग्रंथ क्या कहते हैं? “निश्चल हों और जान लें कि हम परमेश्वर हैं।” “निरन्तर अथक प्रार्थना करें।”…

अविचल एकाग्रता के साथ नियमित योग ध्यान के अभ्यास द्वारा, ऐसा समय आएगा जब आप स्वयं से अचानक यह कह उठेंगें, “आह! मैं यह शरीर नहीं हूँ, हालाँकि मैं इसका उपयोग संसार से सम्पर्क स्थापित करने हेतु करता हूँ; मैं क्रोध, ईर्ष्या, घृणा, लोभ तथा अशान्ति की भावनाओं से भरा यह मन भी नहीं हूँ। मैं तो अंत:करण में चेतना की अद्भुत अवस्था हूँ। मैं परमेश्वर के परमानन्द तथा प्रेम के दिव्य प्रतिरूप में बना हूँ।”

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अनेकों ऐसे तरीक़े हैं जो हमें अति सक्रिय होने के योग्य बनाते हुए भी हमें अपनी आन्तरिक शान्ति या सन्तुलन को खोने नहीं देते। इनमें सर्वप्रथम है प्रत्येक दिन की शुरुआत कुछ समय के लिए ध्यान में बैठ कर करना। जो लोग ध्यान नहीं करते वे यह कभी नहीं जान पाएँगे कि जब मन अंत:करण में गहरी डुबकी लगाता है तब चेतना किस आश्चर्यजनक शान्ति से परिपूर्ण हो जाती है। सोच-विचार द्वारा आप शान्ति की उस स्थिति तक नहीं पहुँच सकते, क्योंकि उसका अस्तित्त्व चेतन मन तथा विचार प्रणाली से परे है। इसीलिए, परमहंस योगानन्दजी द्वारा हमें सिखायी गई योग ध्यान की प्रविधियाँ इतनी अद्भुत हैं; सम्पूर्ण विश्व को इनका प्रयोग करना सीखना चाहिए। जब आप इनका सही ढंग से अभ्यास करते हैं तब आप वास्तव में यह अनुभव करेंगे की आप अपने अंत:करण में शान्ति के एक महासागर में तैर रहे हैं। मन को उस आन्तरिक प्रशांति की अवस्था में तल्लीन कर अपने दिन की शुरुआत करें।

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ध्यान के साथ आती है, अहं:-विस्मृति, व्यक्ति का परमेश्वर के साथ सम्बन्ध, तथा दूसरों में उपस्थित ईश्वर के विषय में अधिक सोचना। भक्त को यदि यह स्मरण रखना है कि वह परमेश्वर की अमर, नित-चैतन्य दिव्य छवि में बना है, तो उसे अपने क्षुद्र अहम् का त्याग करना ही होगा। बाइबिल कहती है, “निश्चल हों और जान लें कि मैं परमेश्वर हूँ।” यही योग है।… जब कोई व्यक्ति अपनी चेतना को बोध के उच्चतर केन्द्रों तक उठा लेता है तभी वह जान सकता है कि वह परमेश्वर की छवि में बना है।

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शान्ति और सामंजस्यता, जिसे सभी इतनी तत्परता से खोज रहे हैं, को न तो भौतिक वस्तुओं में ही और न ही बाहरी अनुभवों में पाया जा सकता है।… अपने जीवन की बाहरी परिस्थितियों में सामंजस्यता लाने का रहस्य है कि अपनी आत्मा तथा परमेश्वर के साथ आन्तरिक सामंजस्यता को स्थापित करना। प्रतिदिन संसार से अलग होने, मन को अंतर्मुखी करने, तथा परमेश्वर की उपस्थिति का अनुभव करने का प्रयास करने हेतु थोड़ा समय निकलें। ध्यान का यही उद्देश्य है। गहन ध्यान तथा अपनी चेतना को अंत:करण में परमेश्वर की शान्ति के साथ एकरूप करने के पश्चात, आप यह पाएँगे कि बाहरी कठिनाइयाँ आपको इतना तनाव नहीं दे पातीं। आप अपना आत्म-संयम तथा धैर्य खोये बिना तथा बिना अति प्रतिक्रियात्मक हुए, उनसे निबटने में स्वयं को सक्षम पाएँगे।… आप में आन्तरिक सामर्थ्य होगा जो आपको यह कहने में सक्षम बनाएगा, “ठीक है, मैं इस कठिनाई का डट कर मुक़ाबला करूँगा और इस पर विजय पाऊँगा।”

एक संतुलित जीवन जीना

हम में से प्रत्येक के अंत:करण में स्थिरता का एक मन्दिर है, जो किसी भी सांसारिक उथल-पुथल की घुसपैठ को अनुमति प्रदान नहीं करता। हमारे चारों तरफ़ चाहे कुछ भी क्यों न चल रहा हो, जब हम अपनी आत्माओं में मौन के उस पवित्र स्थल में प्रवेश करते हैं, हम परमेश्वर की पवित्र उपस्थिति का अनुभव करते हैं तथा उनकी शान्ति एवम् सामर्थ्य को ग्रहण करते हैं।

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जब मैं उन लोगों को देखती हूँ, जिनके मन अनेकों समस्याओंहताशा, अप्रसन्नता तथा निराशाओं से परेशान हैंतब मेरा हृदय उनके लिए पीड़ा का अनुभव करता है। मानव जीव ऐसे अनुभवों द्वारा रोग ग्रस्त क्यों होते हैं? एक कारण से : उस दिव्य की विस्मृति, जहाँ से वे आए हैं। यदि आप एक बार यह बोध कर लें कि आप के जीवन में केवल एक ही कमी है, वह है परमेश्वर, तब फिर उस कमी को दूर करने के लिए आप दैनिक ध्यान में परमेश्वर की चेतना के साथ स्वयं को परिपूरित करने हेतु प्रयत्नशील हो जाएँगे, ऐसा समय आएगा कि आप इतने पूर्ण हो जाएँगे, परमपरिपूर्ण कि कुछ भी आपको न तो विचलित ही कर पायेगा और न ही परेशान।

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विपत्तियाँ हमें न तो नष्ट करने और न ही हमें सज़ा देने के लिए ही आती हैं, अपितु हमारी आत्माओं के भीतर अदम्यता को जगाने हेतु आती हैं।… हम जिन कष्टकारी अग्नि परीक्षाओं से गुज़रते हैं वे तो परमेश्वर के हाथ की छाया है, जो कि आशीर्वाद देने हेतु फैले हुए हैं। हमें माया के, द्वैत के इस कष्टपूर्ण संसार से बाहर निकालने के लिए, परमेश्वर अत्यन्त उत्सुक हैं। जिन कठिनाइयों को भी वे हमारे ऊपर से गुज़रने देते हैं, वे तो हमारी उन की ओर वापसी की यात्रा को तीव्र गति प्रदान करने हेतु आवश्यक होती हैं।

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यह तो आध्यात्मिक रूप से सन्तुलित व्यक्ति ही है, जो कि वास्तव में एक सफल व्यक्ति है। मेरा तात्पर्य आर्थिक रूप से सफल होने से नहीं है; इसका तो कोई अर्थ ही नहीं रहता। ऐसा मेरा अनुभव रहा है, जैसा कि परमहंसजी का भी था, उनके शब्दों में : मैं भौतिक रूप से अनेकों सफल व्यक्तियों से मिला हूँ जो कि भावनात्मक एवम् आध्यात्मिक रूप से असफल रहेतनावपूर्ण, आन्तरिक शान्ति तथा प्रेम देने और उसे ग्रहण करने की कमियों के साथ; अपने परिवारों में, या अन्य मनुष्यों में या परमेश्वर के साथ सामंजस्यता पूर्ण सम्बन्ध बनाए रखने में अक्षम। एक व्यक्ति की सफलता का मापन उस के पास कितनी भौतिक सम्पदा है, से नहीं किया जा सकता, अपितु इस से कि वह क्या है और अपने आप से वह दूसरों को क्या देने में सक्षम है।

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ध्यान हमें, अपने बाहरी जीवन को, आत्मा के आन्तरिक मूल्यों के साथ समस्वरित करने में हमारी सहायता करता है, जोकि इस संसार में और कोई भी वस्तु नहीं कर सकती। यह हमें पारिवारिक जीवन या दूसरों के साथ हमारे सम्बन्धों से दूर नहीं ले जाता। अपितु, यह तो अधिक प्रिय, अधिक समझदार बनाता हैयह हमें अपने पति या पत्नी, अपने बच्चों, अपने पड़ोसियों की सेवा करने की इच्छा प्रदान करता है। वास्तविक आध्यात्मिकता तभी प्रारम्भ होती है जब हम दूसरों को अपनी भलाई की इच्छाओं में सम्मिलित करते हैं, जब हम अपने विचारों को “मैं और मेरापन” से परे विस्तारित करते हैं।

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परमेश्वर में एक सन्तुलित जीवन जीना कितना परिपूर्णता प्रदायक तथा कितना अद्भुत रूप से भिन्न है, जैसा हमें परमहंस योगानन्दजी ने दिखाया।… लोगों की यह धारणा है कि जब आपको परमेश्वर की खोज करनी हो, तो आपको ओह कितना अधिक पवित्र, एकांतिक होना होता है! परन्तु इस झूठी धर्म परायणता का, आत्मा से कुछ लेना देना नहीं। अनेकों सन्तों, जिनसे मैं मिली हूँ तथा जिनका मैंने साहचर्य भी किया है, जिनमें परमहंसजी भी सम्मिलित हैं, इतने आनन्द से भरपूर, सहज तथा शिशु सुलभ थे। मेरे कहने का तात्पर्य बचकानाअपरिपक्व और ग़ैर-ज़िम्मेदार नहीं है; मेरा तात्पर्य शिशु-सुलभता हैवह व्यक्ति जो जीवन के सरलतम सुखों का उपभोग करता हो, जिसका जीवन उल्लास से भरा हो। आज पश्चिमी सभ्यता के लोग यह नहीं जानते कि सरल वस्तुओं का उपभोग कैसे किया जाता है। वे अपने भोगों से इतने थक हार चुके हैं कि कुछ भी उन्हें संतुष्टि प्रदान नहीं कर पाता; बाहरी तौर पर अत्यधिक उत्तेजित, अंत:करण में शुष्क एवं रिक्त : वे इससे बचने के लिए शराब या नशीली दवाओं का सेवन करते हैं। आधुनिक सभ्यता की उपयोगिता अस्वस्थकर, अप्राकृतिक है; इसीलिए यह वास्तव में अनेकों सन्तुलित व्यक्तियों तथा परिवारों को उत्पन्न करने में असमर्थ है जो कि अलग-थलग न हों।… आइए, हम जीवन के सरल सुखों की ओर वापिस मुड़ें।

शान्ति तथा विश्व समस्वरता का मार्ग

शान्ति और सामंजस्यता, जिसे सभी इतनी तत्परता से खोज रहे हैं, को न तो भौतिक वस्तुओं में ही और न ही बाहरी अनुभवों में पाया जा सकता है। यह असम्भव है। शायद एक सुन्दर सूर्यास्त को देखकर या पर्वतों पर जा कर या समुद्र किनारे, आप अस्थायी रूप से प्रशांति का अनुभव कर सकते हैं; परन्तु यदि आप अपने स्वयं के भीतर असामंजस्यपूर्ण हैं, तो सबसे अधिक प्रेरणात्मक पर्यावरण भी आपको शान्ति प्रदान नहीं कर सकता।

अपने जीवन की बाहरी परिस्थितियों में सामंजस्यता लाने का रहस्य है कि अपनी आत्मा तथा परमेश्वर के साथ आन्तरिक सामंजस्यता को स्थापित करना।

राष्ट्रों के बीच शान्ति लाने के बारे में सोचना अवास्तविक होगा यदि उन राष्ट्रों के लोग आपस में शान्ति से नहीं रहते। और यदि वे स्वयं शान्त नहीं हैंतो वे अपने परिवार के सदस्यों के साथ भी शान्ति में नहीं हो सकतेऔर अपने पड़ोसियों के साथ भी शान्ति में नहीं हो सकते। इसका प्रारम्भ तो व्यक्ति को स्वयं अपने से ही करना होगा। पूरे विश्व की अपनी यात्राओं के दौरान प्रत्येक राष्ट्र के नागरिकों ने जो प्रश्न सर्वप्रथम  मुझसे पूछे, उनमें से एक था, “मैं शान्ति कैसे पा सकता हूँ?” मैंने उनसे कहा, “अंत:करण में परमेश्वर के सान्निध्य में जाने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं।” परमहंस योगानन्दजी द्वारा लाई गई इन शिक्षाओं की नींव हैदैनिक ध्यानजो तनावग्रस्त व्यक्तियों तथा टूटे परिवारों के जीवनों में आध्यात्मिक सन्तुलन को तथा उन मान्यताओं को पुनः स्थापित करे, जो हमारे विश्व परिवार के बड़े घर में शान्ति तथा सामंजस्यता को पोषित करे।

यदि हम ज्ञान की दृष्टि से अपने चारों ओर देखें, तो यह स्पष्ट है कि वर्तमान संसार की परिस्थितियाँ, मानवता को परमेश्वर के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध विकसित करने के लिए बाध्य करेंगीं। पृथ्वी का यह ग्लोब, जो पिछली शताब्दियों में इतना विशाल प्रतीत होता था, अब यदि तुलनात्मक दृष्टि से कहें, तो एक संतरे के आकार तक सिकुड़ गया है। हम स्वयं को अब संसार के अन्य लोगों तथा विभिन्न संस्कृतियों से पृथक नहीं सोच सकते; आधुनिक संचार प्रणाली तथा यात्राओं के आधुनिक तरीक़ों ने वास्तव में हमें एक दूसरे के सम्मुख ला खड़ा किया है, इसे नितान्त आवश्यक बना दिया है कि एक दूसरे को समझने तथा एक दूसरे के साथ मिल कर चलने हेतु, आध्यात्मिक परिपक्वता को विकसित करें, जैसा कि एक ही घर के सभी सदस्यों को करना होता है। क्षुद्र मानसिकता तथा पूर्वाग्रहमानवीय प्रकृति की इन दो महान् कमज़ोरियोंको त्यागना ही होगा।…

हमें इस सत्य को पहले से कहीं अधिक स्वीकारना ही होगा : यह विश्व एक है। यह विभिन्न प्रकार के लोगों, जिनके विभिन्न भौतिक स्वरूप, विभिन्न मानसिकताएँ, विभिन्न रुचियाँ तथा अभिप्रेरणाएँ है, से बना है। परन्तु इन विविध मानव व्यक्तित्वों के फूलों को जोड़े हुए, एक मूल सिद्धान्त है, जिसने हम सभी को माला की भाँति एक डोर में पिरोया हुआ हैऔर वह है, परमेश्वर। उनकी निगाहों में न तो कोई महान् है और न ही कोई नीच; हम सभी उन की संतानें हैं। परमेश्वर को इस में कोई रुचि नहीं कि हम कहाँ पैदा हुए, हम किस धर्म का अनुसरण करते हैं या हमारी त्वचा का रंग कैसा है — इससे क्या फ़र्क पड़ता है कि हमारी आत्माओं ने लाल, काला, पीला या सफ़ेद परिधान पहना हुआ है? वे इस कारण किसी का कम ध्यान नहीं रखते। परन्तु वे इस बात पर ध्यान देते हैं कि हम कैसा व्यवहार कर रहे है। यही एकमात्र कसौटी है जिसके द्वारा वे अपनी संतानों का मूल्यांकन करते है। यदि हम पूर्वाग्रहों से भरे हैं, तो हम इसी तरीक़े के पूर्वाग्रहों की फ़सल काटेंगें; यदि हम घृणा से भरे हैं, तो इसी तरीक़े से हम घृणा की फ़सल ही पाएँगे। यदि हम किसी समूह या ग्रुप के प्रति द्वेष से भरे हैं, तब यह निश्चित ही है हम शत्रुता के बीज बो रहे हैं, जिसकी फ़सल को हमें स्वयं ही एक दिन काटना होगा।…

विभिन्न आस्थाओं एवम् अभ्यासों में अंतर्निहित, सभी धर्मों में समान आध्यात्मिक सिद्धान्त रहते हैं।… परमहंसजी ने सदैव यही प्रयास किया था कि भक्तों के ध्यान को इन सार्वभौमिक सिद्धान्तों की ओर खींचा जाएमात्र एक आस्था या शोध निबन्ध के रूप में नहीं, परन्तु उनके दैनिक जीवनों में अभ्यास किए जाने योग्य एक व्यावहारिक आवश्यकता के स्वरूप में। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण हैजिसे युगों युगों से मानवता के उद्धारकों द्वारा सिखाया गयाप्रत्येक व्यक्ति द्वारा दिव्य परमेश्वर के साथ एक सीधा व्यक्तिगत सम्पर्क स्थापित करना।…

दैनिक ध्यान द्वारा हम जितना भी उस चेतना, अपनी वास्तविक प्रकृति की स्मृति की चेतना, में रहने के लिए अधिक प्रयत्नशील होंगें, उतना ही हम उस दिव्यता को स्वयं में अभिव्यक्त कर पाएँगें, जो कि ईसा मसीह में थी तथा हममें से प्रत्येक में भी विद्यमान है। सेल्फ़-रियलाईजे़शन/योगदा सत्संग का यही सन्देश है। यही वह सन्देश है जिसे भारत स्वीकार कर सकता है; ईसाई स्वीकार कर सकते हैं; सभी धर्मोत्साहि स्वीकार कर सकते हैं। यह किसी की आस्थाओं के विरूद्ध नहीं जाता।

विचार में विस्मयकारी शक्ति है, विचार ही सभी कार्यों का स्रोत है। इस सीमित विश्व में प्रत्येक वस्तु विचार का ही परिणाम है। ब्रह्माण्ड में यह सबसे प्रभावशाली शक्ति है; जिसमें जीवनों, समुदायों तथा राष्ट्रों को बदलने का सामर्थ्य है। इसलिए यह कितना महत्त्वपूर्ण है कि हमारे विचार नकारात्मक होने के बदले सकारात्मक हों। आजकल करोड़ों लोग ऐसे हैं जो नकारात्मक तरीक़े से सोचते तथा कार्य करते हैं। अतः हमारे तथा हमारी सम्पूर्ण पृथ्वी की भलाई के लिए यही उचित होगा कि हम सभी अपने साथी मानवों के लिए प्रार्थना करने में एक सक्रिय भागीदारी निभाएँ। जब अनेकों आत्माएँ मिल कर प्रार्थना करती हैं, उनकी भलाई, प्रेम, तथा सकारात्मक व्यवहार के संयुक्त विचार-स्पन्दन एक प्रभावशाली शक्ति को उत्सर्जित करते हैं, जिसमें सम्पूर्ण विश्व के जीवनों को परिवर्तित करने की सामर्थ्य होती है।

गुरु : परमहंस योगानंदजी की स्मृतियाँ

मैं सत्रह वर्ष की युवती थी, और जीवन मेरे लिए एक लम्बा, अंधियारा, तथा दिशाविहीन गलियारा प्रतीत होता था। परमेश्वर से किसी उद्देश्यपूर्ण अस्तित्त्व, जिसमें मैं उन्हें खोज सकूँ तथा उनकी सेवा कर सकूँ, की ओर मेरे क़दमों को निर्देशित करने हेतु, अथक, निरन्तर प्रार्थनाएँ मेरी चेतना के अंत:करण में गूँजती रहती थीं।

उन उत्कंठाओं का उत्तर एक तात्कालिक बोध के साथ उस समय मिला, जब मैंने 1931 में सॉल्ट लेक शहर के एक बड़े, भीड़ से खचा-खच भरे सभागृह में प्रवेश किया तथा परमहंसजी को एक मंच पर खड़े देखा, जो कि परमेश्वर के बारे में एक ऐसे प्रमाण के साथ बोल रहे थे, जिसका मैंने पहले कभी भी प्रत्यक्ष दर्शन नहीं किया था। मैं एकदम मंत्र-मुग्ध रह गई थी। मैं पूर्णत: स्तब्ध रह गई थी — मेरा श्वास, विचार, समय जैसे रुक गये हों। एक प्रेमपूर्ण कृतज्ञता से भरी स्वीकारोक्ति का आशीर्वाद जो मेरे सम्पूर्ण अस्तित्त्व पर छा रहा था, अपने साथ मेरे अंत:करण में उठ रही एक धारणा को लाया: “यह व्यक्ति ईश्वर से प्रेम करता है, जैसे कि मैं सदैव उनसे प्रेम करने के लिए लालायित रहती हूँ। ये ईश्वर को जानते हैं। मैं इनका अनुसरण करूँगी।”

अनेकों वर्षों तक मुझे उनके सान्निध्य का कृपादान प्राप्त हुआ, मैंने परमहंस योगानन्दजी को कभी भी मात्र एक पुरुष के रूप में नहीं देखा। उन्होंने महान् दिव्यता को प्रकट किया था, यही एक तरीक़ा है जिससे मैं उनका वर्णन कर सकती हूँ।… मुझे वे ऐसे प्रतीत होते थे जैसे कि कोई सीधे धर्म ग्रन्थों के पृष्ठों से प्रकट हुये हो। ऐसा ईश-मदमस्त, प्रेमपूर्ण, सार्वभौमिक स्वभाव! वे तो कोई अवतारी पुरुष ही थे जो, इस विशेष कार्य के लिए आए थे जो उन्हें सौंपा गया था : पश्चिम में तथा पूरे विश्व में, परमेश्वर के साथ सम्पर्क स्थापित करने के विज्ञान को लाने, जिसे हम क्रियायोग कहते हैं।

ऊपर दिए गए संकलन योगदा सत्संग पत्रिका  तथा निम्नलिखित पुस्तकों से लिए गए हैं, जोकि हमारी ऑनलाइन बुकस्टोर में उपलब्ध हैं :

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