राजर्षि जनकानन्द द्वारा
Rajarsi Janakananda: A Great Western Yogi से उद्धृत ऑर्डर करें
निम्न वृतांत 3 जनवरी, 1937 को लॉस एंजिलिस स्थित सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के अंतरराष्ट्रीय मुख्यालय में दिए गए एक व्याख्यान से लिया गया है। यह 18 महीने की भारत व यूरोप की यात्रा के बाद परमहंसजी के लौटने के उपलक्ष में आयोजित एक भोज के अवसर पर दिया गया था। राजर्षि जनकानन्द (1892–1955) परमहंस योगानन्दजी के प्रथम आध्यात्मिक उत्तराधिकारी के रुप में वाईएसएस/एसआरएफ़ के अध्यक्ष थे।
रोग निवारक प्रकाश का एक अनुभव
पाँच वर्ष पूर्व ही मुझे परमहंस योगानन्दजी से पहली बार मिलने का महान् सौभाग्य प्राप्त हुआ। सदा ही मेरी रुचि सत्य और धर्म में रही, यद्यपि मैंने कभी किसी चर्च को नहीं अपनाया। व्यवसाय ही मेरा जीवन था; लेकिन मेरी आत्मा बीमार और मेरा शरीर क्षीण हो रहा था और मेरा मन विचलित था। मैं इतना व्यग्र था कि निश्चल नहीं बैठ सकता था।
परमहंसजी से मिलने के बाद और कुछ समय उनके साथ बिताने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मैं बहुत ही स्थिर होकर बैठ रहा था; मैं अचल था; मुझे लगा साँस भी नहीं ले रहा था। मुझे इस पर आश्चर्य हुआ और मैंने परमहंसजी की ओर देखा। एक धवल प्रकाश प्रकट हुआ और उसने पूरे कक्ष को भर दिया। मैं उस अद्भुत प्रकाश का एक अंश बन गया। उस समय के बाद मैं व्यग्रता से मुक्त हो गया।
मैंने पाया कि मैंने कुछ यथार्थ खोज लिया है, कुछ ऐसा जो मेरे लिए अत्यंत मूल्यवान है। मुझे यह निश्चित जानना था। रोग निवारक प्रकाश का अनुभव होने तक मुझे एहसास ही नहीं हुआ कि मैंने पूर्व में अनभिज्ञ आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश पा लिया है।
इन शिक्षाओं की सबसे सुंदर बात है कि किसी को अंधविश्वासों पर निर्भर नहीं होना पड़ता। वह अनुभव करता है। वह जानता है कि वह जानता है, क्योंकि वह अनुभव करता है। साधारणतः आदमी को केवल अपने विचारों और भौतिक संसार जिसे सुन सकता है, चख सकता है, देख और सुन सकता है का ही ध्यान रहता है। लेकिन उसे अपने अंतर में गहन आत्म का बोध नहीं रहता जो उसे सोचने और बाहरी संसार को इन्द्रियों के माध्यम से पहचानने को, संभव बनाता है। वह उस “वह” के बारे में कुछ नहीं जानता जो दृश्यों के पीछे, विचारों और इन्द्रियों के पीछे मूल में है। प्रत्येक को इस जीवन की उपस्थिति का बोध, असली जीवन और इस जीवन के साथ अपनी चेतना को एकाकार करना सीखना चाहिए।
ज्ञान बिना संपदा आनन्द नहीं दे सकती
परमहंसजी से मिलने से पहले यह विचार मेरे मन में कभी आया ही नहीं कि मनुष्य उससे भी अधिक हद तक चेतन हो सकता है जितना मैं उस समय था। मगर सांसारिक वस्तुओं को भोगने के बाद मैं किस हद तक तंग हो चुका था; जैसा कि क्षण भर पहले मैंने कहा मेरी आत्मा बीमार थी, मेरा शरीर ठीक नहीं था। मैं किसी चीज़ से संतुष्ट नहीं था। यदि किसी धनी को निहारने का आपको मौका मिला हो तो विराट वैभव वाले आपको अधिकतर असंतुष्ट और दुःखी मिलेंगे। ज्ञान बिना संपदा आनन्द नहीं दे सकती। हम सब जीवन में आनन्द खोज रहे हैं; हम जो भी करते हैं आनन्द की खोज में करते हैं।
आत्म-साक्षात्कार मार्ग — योग एवं भक्ति का मिश्रण
आत्म-साक्षात्कार के मार्ग पर व्यक्ति पुनः जीवंत हो जाता है। वह वास्तव में जीने लगता है। वह अपने में दिव्य जीवन का अनुभव करता है। वह अपनी आत्मा का परमात्मा से मिलन अनुभव करता है। परमहंसजी द्वारा सिखाया गया आत्म-साक्षात्कार का मार्ग वैज्ञानिक है। यह योग — एक ऐसा विज्ञान जिसका अपने अंतर में अभ्यास किया जाता है — और ईश्वर भक्ति का संयोजन है। योग और ईश्वर-भक्ति साथ मिलकर मनुष्य को उसकी अपनी दिव्यता का बोध कराते हैं।
धर्म का एक ही उद्देश्य है : व्यक्ति को अपने जीवन का सर्वव्यापी जीवन के रूप में बोध कराना। यह प्राप्ति ही स्वर्ग है। अपने अनुभव से मेरा यह दृढ़ मत है कि आत्म-ज्ञान प्राप्ति के सफल प्रयास किए बिना, मनुष्य मोक्ष या आत्मा की अंतिम मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता।
पश्चिमी और पूर्वी संपदा के संयोजन की आवश्यकता
भौतिक उपलब्धियों में अमेरिका समृद्ध है। और भारत ब्रह्मज्ञान में समृद्ध है। इन दोनों का मेल एक आदर्श विश्व सभ्यता को बना पाएगा।
जो केवल भौतिक जगत् में, पदार्थ चेतना में ही जीते हैं वह परिग्रह के प्रति आसक्त रहते हैं। आसक्ति से दासत्व उपजता है। हम आदतों और संपत्ति के दास बन जाते हैं। संपत्ति नहीं बल्कि अविद्या और आसक्ति हमें दास बनाती हैं।
भैतिक आसक्ति रखने वाला कभी मुक्त नहीं होता। उसकी आस्था उन वस्तुओं में होती है, जिन्हें उसे एक दिन खोना ही है। केवल एक संपत्ति ही शाश्वत है: आत्मा। किसी भी वस्तु से आत्मा निकलते ही, उसमें कोई आकर्षण नहीं बचता। जीवन वस्तुतः आत्मा ही है।
देह छूट जाने पर केवल दो चीजें ही हमारे पास बचती हैं : जीवन और चेतना। हम हर चीज़ से छुटकारा पा सकते हैं, पर जीवन और चेतना से नहीं। वे सदैव हमारे साथ रहते हैं। सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप की शिक्षाएं सिखाती हैं कि उचित चेतना का विकास कैसे करें — एक ज्ञान और आत्मा का आंतरिक अनुभव।
परमहंसजी ने अपने शिष्यों से किसी भी बात पर आँख मूंद कर विश्वास करने को नहीं कहा। “क्रियायोग का अभ्यास करो,” वह कहते हैं, “और अंतर स्थित आत्मा के वैभव को स्वयं खोजो।”
परमहंसजी : प्रेम का मूर्त रूप
एक सद्गुरु, ईश्वर के देवदूत जैसे होते हैं। हमारे प्रिय परमहंसजी प्रेम और निःस्वार्थता की प्रतिमूर्ति हैं। वह परमानन्द के स्वामी हैं। उनका संपर्क अपने पूर्व के प्रबुद्ध सद्गुरुओं की एक श्रृंखला से है। पश्चिमी मानस को यह वक्तव्य थोड़ा विचित्र लग सकता है, पर सत्य यही है। सभी सद्गुरु एक दूसरे से संबंधित हैं, उनका संपर्क आत्मा से है और वह अपनी शक्तियों से दूसरे मनुष्यों में भी शक्तिपात कर सकते हैं। हमारा कितना बड़ा सौभाग्य रहा है कि भारत ने (जिसे बहुत से लोग सपेरों का देश कहते हैं) एक ऐसा सद्गुरु हमारे तट पर भेजा जो हमें इस चैतन्य प्राप्ति में सहायता कर सकता है।
जो आत्मा से वार्तालाप कर सकते हैं वह ऐसे सौंदर्य और माधुर्य से परिचित हो जाते हैं जिसे किसी और तरह अनुभव नहीं किया जा सकता।
एक सन्त की संगति का आनंद कितना स्वर्गीय है! मेरे जीवन में जो भी कुछ मुझे मिला है, उनमें परमहंसजी द्वारा मुझ पर अर्पित की गई कृपा मेरे लिए सर्वाधिक मूल्यवान है।
प्राचीन हिंदुओं ने आत्मा का विज्ञान विकसित किया
मैं स्वीकार करता हूँ कि पहले मैं पूर्वाग्रहों से ग्रस्त था। कभी मैं भी उनमें से एक था जोकि हिंदुओं को सपेरा समझते हैं। अब मैं भारत का सम्मान उस देश के रूप में करता हूँ जिसके सन्तों ने सर्वोच्च विज्ञान — योग, आत्मान्वेषण की पद्धति, को विकसित किया।