योग विज्ञान एवं जीवन का उद्देश्य
योग के अन्तर्तम में क्या है?
आत्मा का परमात्मा के साथ एक होना योग है — उस सर्वोच्च आनन्द से पुनर्मिलन, जिसे हर कोई ढूँढ रहा है। क्या यह एक अद्भुत परिभाषा नहीं है? परमात्मा के नित्य नवीन आनन्द में आप आश्वस्त हैं, कि जो आनंद आप अनुभव कर रहे हैं, वह किसी भी अन्य प्रसन्नता से अधिक है, और कुछ भी आपको इससे वंचित नहीं कर सकता।
— परमहंस योगानन्द
प्राचीन काल से ही ध्यान का स्थान भारत के योग दर्शनशास्त्र के केन्द्र के रूप में रहा है। इसका उद्देश्य योग के शाब्दिक अर्थ में पाया जा सकता है : “एकत्त्व” — हमारी व्यक्तिगत आत्मा अथवा चेतना का अनन्त के साथ, शाश्वत आनन्द अथवा परमात्मा के साथ।
परमात्मा की आनंदमयी चेतना के साथ एकत्त्व प्राप्त करने के लिए — और इस प्रकार स्वयं को सभी प्रकार के कष्टों से मुक्त करने के लिए — आवश्यकता है, जाँची-परखी क्रमबद्ध प्रविधियों का पालन करते हुए, धैर्यतापूर्वक ध्यान का अभ्यास करने की। अर्थात्, हमें एक वैज्ञानिक विधि की आवश्यकता है।
राज (“राजसी”) योग, ईश्वर-प्राप्ति का वह सम्पूर्ण विज्ञान है — योगशास्त्रों में निर्धारित ध्यान एवं उचित कार्य की क्रमानुसार विधियाँ, जिसे सदियों पूर्व भारत के सनातन धर्म (“शाश्वत धर्म”) की अनिवार्य प्रथाओं के रूप में सोंपा गया है। योग का यही कालातीत एवं सार्वजनिक विज्ञान है, जो सभी सच्चे धर्मों में केंद्रित गूढ़ शिक्षाओं को रेखांकित करता है।
क्रियायोग की नींव पर आधारित योगदा सत्संग राजयोग की शिक्षाएँ, ऐसे जीवन का चित्रण करती हैं जिसमें शरीर, मन और आत्मा परिपूर्ण रूप से प्रमुखता पाते हैं; इसमें निहित है, प्राणायाम (प्राण-शक्ति का नियन्त्रण) प्रविधि जिसका उल्लेख भगवान् कृष्ण ने भगवद्गीता और ऋषि पतंजलि ने योग सूत्रों में किया, परन्तु उसकी कोई व्याख्या नहीं दी है। कई शताब्दियों तक मानव जाति से लुप्त हुए क्रियायोग को आधुनिक युग के लिए पुनर्जीवित किया सुप्रसिद्ध योग गुरुओं की परंपरा ने : महावतार बाबाजी, लाहिड़ी महाशय, स्वामी श्रीयुक्तेश्वर और परमहंस योगानन्द।
परमहंस योगानन्दजी को उनके श्रद्धेय गुरुओं ने क्रियायोग को पश्चिम में लाने और विश्वभर में प्रसारित करने के लिए चुना था; और इसी उद्देश्य से उन्होंने सन् 1920 में सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप की स्थापना की।
संतुलित क्रियायोग पथ में प्रमुख है — योगदा पाठमाला में से परमहंस योगानन्दजी द्वारा सिखाई गयी ध्यान की वैज्ञानिक प्रविधियों का दैनिक अभ्यास। ध्यान का अभ्यास करने से हम शरीर और मन की चंचलता को स्थिर करते हैं; ताकि हम स्थायी शान्ति, प्रेम, ज्ञान और आनंद को अपने अस्तित्त्व के ही स्वरुप में अनुभव कर सकें — फिर चाहे हमारे आस-पास के संसार में कुछ भी हो रहा हो।
अधिक ध्यान करें। आप नहीं जानते कि यह कितना अद्भुत है। धन या मानवीय प्रेम या ऐसी कोई भी वस्तु जो आप सोच सकते हैं उस पर घंटों व्यतीत करने की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण है ध्यान करना। जितना अधिक आप ध्यान करेंगे, और जितना अधिक आपका मन कार्यरत अवस्था में भी आध्यात्मिकता में केंद्रित रहेगा, उतना अधिक आप मुस्कुराने में सक्षम होंगे। अब मैं सदैव वहीं हूँ, ईश्वर की आनंदपूर्ण चेतना में। मुझे कुछ भी प्रभावित नहीं करता; चाहे मैं अकेला हूँ अथवा लोगों के साथ, वह ईश्वर का आनंद सदैव मेरे साथ रहता है। मैंने अपनी मुस्कुराहट को बनाये रखा — परन्तु इसे स्थायी रख पाना कठोर परिश्रम था! वैसी ही मुस्कुराहट आपके भीतर है; वैसी ही प्रसन्नता एवं आत्मा का आनंद वहीं है। आपको उन्हें अर्जित नहीं करना है अपितु उन्हें पुनः प्राप्त करना है।
— परमहंस योगानन्द
ध्यान की प्रयोगशाला के भीतर
जिन अनुभवों के बारे में मैंने आपको बताया है, वे सभी वैज्ञानिक रूप से प्राप्त किए जा सकते हैं। यदि आप आध्यात्मिक नियमों का पालन करें तो परिणाम सुनिश्चित है।
— परमहंस योगानन्द
जिस प्रकार एक वैज्ञानिक किसी प्रयोग के परिणामों को सत्यापित करने के लिए प्रयोगशाला में जा सकता है, उसी प्रकार एक योगी भी ध्यान की “प्रयोगशाला” में जाकर वही परिणाम प्राप्त कर सकता है, जो भारत के ऋषियों और उस प्रत्येक सत्याकांक्षी — किसी भी देश या किसी भी समय के — द्वारा सिद्ध किए गए हैं, जिन्होंने सत्य के हृदय में झाँका है।
विज्ञान हमें किसी भी बात को अंधविश्वास या हठधर्मिता के रूप में स्वीकार करने के लिए नहीं कहता। ध्यान की निश्चित विधियों का उपयोग करके, जिनके परिणाम असंख्य शताब्दियों से योगी-वैज्ञानिकों द्वारा प्रदर्शित और दोहराए गए हैं, हम अपने लिए उनकी प्रभावशीलता साबित कर सकते हैं — और धीरे-धीरे इस मिथ्या, फिर भी दृढ़ विचार पर विजय प्राप्त कर सकते हैं कि हम ये सीमित शरीर हैं। इस प्रकार हम सत्य की खोज कर सकते हैं — कि अन्तर्वासी परमात्मा, आत्मा, के रूप में हम दुनिया के द्वैत और परीक्षणों से अछूते हैं; हम आनंदमय ईश्वर के साथ एक हैं और हमेशा से रहे हैं। ऐसी गहन समझ अंततः उस प्रत्येक व्यक्ति को प्राप्त हो सकती है जो एक सद्गुरु — जिसने ईश्वर के साथ अपनी पहचान का पूर्ण बोध कर लिया है — के मार्गदर्शन में ध्यान की सही विधियों का अभ्यास करता है।
इस वैज्ञानिक युग में, जब भौतिक ब्रह्मांड के विशालतम विस्तार से लेकर सूक्ष्मतम कणों तक की खोज चल रही है, वहीं आध्यात्मिक क्षेत्र को समझने के लिए भी समान रूप से साहसिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है। हमें अपनी आध्यात्मिक खोज को केवल धर्म की मान्यताओं पर चर्चा करने से आगे बढ़ाकर प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा परम सत्य के बोध की संतुष्टि प्राप्त करने तक ले जाने की आवश्यकता है। और यह सत्य ऐसा होना चाहिए जिसे ऐसे ज्ञान को प्राप्त करने वाली व्यवस्थित प्रक्रियाओं और अनुशासनों का अनुसरण करने के इच्छुक किसी भी व्यक्ति द्वारा सत्यापित किया जा सके।
एक आध्यात्मिक वैज्ञानिक के रूप में, योगी अपनी चेतना — एकमात्र प्रयोगशाला जहाँ आत्मा और परमात्मा की शाश्वत प्रकृति को पूर्ण स्पष्टता और सटीकता तथा पूर्ण विस्मय के साथ अनुभव किया जा सकता है — में दिव्य संपर्क की मूर्त शांति, प्रेम, ज्ञान और आनंद को प्राप्त करने के लिए ध्यान की प्रविधियों का अभ्यास करता है।
योग ध्यान में, साधक संवेदी और मोटर तंत्रिकाओं से प्राण-शक्ति का प्रत्याहार कर लेता है — प्राणायाम (प्राण-शक्ति नियंत्रण) की प्रक्रिया द्वारा — और इसे मेरुदण्ड तथा मस्तिष्क के भीतर बोध के उच्चतर केन्द्रों की ओर निर्देशित करता है। भीतर वापस जाने वाला प्राण स्वत: ही चेतना को बाहरी दुनिया से भीतर के अनंत क्षेत्र में वापस ले जाता है। सोचने या दार्शनिक चिंतन की एक अस्पष्ट मानसिक प्रक्रिया होने से कहीं अलग, प्राणायाम ध्यान आत्मा की अनंत क्षमता को उजागर करने का एक समय-परीक्षित तरीका है।
वैज्ञानिक केवल प्रार्थना द्वारा आविष्कर नहीं करते, अपितु प्रकृति के नियमों के प्रयोग द्वारा करते हैं। इसी प्रकार, ईश्वर भी उसी के पास आते हैं जो नियम का पालन करता है, जो ध्यान के विज्ञान का प्रयोग करता है। लोग धर्मविज्ञान के वन में भटक गए हैं और स्वयं को खो बैठे हैं। व्यर्थ में, मैं ईश्वर की खोज में कितने ही मन्दिरों में गया हूँ; परन्तु जब मैंने ईश्वर के महान् प्रेमियों में आत्मा के मन्दिरों को पाया, तो मैंने देखा कि वे वहाँ थे। वे भव्य भवनों की घूस नहीं लेते, वे तो उन्हें सतत रुप से पुकारने वाले हृदय की अश्रु-सिंचित वेदी पर आते हैं। ईश्वर सत्य हैं। जिन सन्तों ने अनेक वर्षों तक स्वयं को ध्यान में समर्पित कर दिया है, उन्होंने उन्हें पाया है।
— परमहंस योगानन्द
हमारी प्रेरणास्वरूप परमानन्द
विभिन्न वस्तुओं की सम्पूर्ण खोज में, स्पष्ट या अस्पष्ट रूप से, वास्तव में आप अपनी इच्छाओं की पूर्त्ति द्वारा प्रसन्नता को खोज रहे हैं।…तब सीधे ही आनन्द को क्यों न खोजें?
— परमहंस योगानन्द
अमेरिका में अपने पहले ही व्याख्यान में, तथा अपनी पुस्तक धर्म विज्ञान में, परमहंस योगानन्द ने पश्चिमी लोगों को सत्-चित्-आनन्द — नित्य विद्यमान, नित्य चेतन, नित्य-नवीन-आनन्द — स्वरूप ईश्वर की प्राचीन वैदिक अवधारणा से परिचित कराया।
हमारी विभिन्न इच्छाओं को पूर्ण करने के हमारे प्रयासों के पीछे, क्या स्वयं सुख की एक और अधिक आधारभूत चाह एवं दु:ख से मुक्ति की इच्छा नहीं है? परमहंसजी ने अपने सार्वजनिक व्याख्यानों में आने वाले लोगों और बाद में उनकी क्रियायोग शिक्षाओं के छात्र बनने वाले लोगों को सीधे उस सुख को खोजने के लिए आमंत्रित किया — ध्यान-योग की वैज्ञानिक पद्धति का उपयोग करके स्वयं अपने भीतर परमात्मा के आनंद की खोज करना।
ध्यान में ईश्वर को आनन्दस्वरूप जानने के अवसर के विषय में बोलते हुए परमहंसजी ने कहा : ईश्वर मनुष्य के शान्त अनुभव में आते हैं। आनन्द-चेतना में हम उसका अनुभव करते हैं। उसके अस्तित्व का अन्य कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है। उसमें, केवल आनन्द रूप में, हमारी आध्यात्मिक आशाएँ तथा आकांक्षाएँ पूर्ण होती हैं तथा हमारी भक्ति और प्रेम को एक लक्ष्य प्राप्त होता है।
वह आनन्द जो प्रत्येक समय लयबद्ध रूप से परिवर्ततित होता रहे, तथा तब भी स्वयं में अपरिवर्तनशील रहे, एक अभिनेता की भाँति, जो विभिन्न भूमिकाओं एवं भाव भंगिमाओं द्वारा मनोरंजन करता है, उसी सुख को हम खोज रहे हैं। ऐसा आनन्द केवल गहन एवं नियमित ध्यान द्वारा ही पाया जा सकता है। एकमात्र अपरिवर्तनशील नित्य-नवीन-आनन्द का आन्तरिक फव्वारा ही हमारी प्यास को बुझा सकता है। अपने स्वाभाविक रूप से ही, यह दिव्य परमानन्द एकमात्र ऐसा सम्मोहन है जो मन को भी नहीं थका सकता या हमें इसे किसी और वस्तु के साथ बदलने की इच्छा नहीं करने देता।
— परमहंस योगानन्द
योग की सार्वभौमिकता
वाईएसएस/एसआरएफ़ के अध्यक्ष व आध्यात्मिक प्रमुख स्वामी चिदानन्दजी ने 2017 में भारत में अपने प्रवचन के दौरान कहा कि : “सदियों से भारत ने संपूर्ण मानवता के लिए उच्चतम आध्यात्मिक सत्य का संरक्षण किया है, और यह परमहंसजी के विशेष उपदेशों का ही परिणाम था, कि भारत का सर्वोच्च ज्ञान सर्वप्रथम पश्चिम में प्रसारित हुआ, तदोपरांत संपूर्ण विश्व में और वापिस उनके प्रिय भारत तक वह ज्ञान पहुँचा। उन्होंने भारत के स्वर्ण युग की उच्चतम सभ्यता का पावन वैश्विक आध्यात्मिक सार विशुद्ध रूप में प्रस्तुत किया। वह है योग। यह एक विज्ञान है, कोई धर्म या मत नहीं है; और इसलिए यह आध्यात्मिक विशेषाधिकार — योग का प्रकाश — विश्व-भर में पूरी मानवता के लिए एक आध्यात्मिक आशीर्वाद है।”
परमहंस योगानन्दजी अक्सर इस बात पर जोर देते थे कि योग के अभ्यास व उससे होने वाले उदात्त लाभ को प्राप्त करने के लिए किसी भी विशेष राष्ट्रीयता, जाति, या धर्म का होने की आवश्यकता नहीं है। योग की वास्तविक सार्वभौमिकता इस तथ्य में है कि उसके परिणाम किसी भी व्यक्ति द्वारा प्राप्त किए जा सकते हैं, चाहे वह किसी भी देश का हो, पूर्वी या पश्चिमी।
योग-ध्यान के नियमित अभ्यास के माध्यम से, हम सभी गहरे आनन्द, प्रेम, करुणा, और शांति की एक गहरी अनुभूति कर सकते हैं। और जैसे-जैसे ये परिवर्तन हमारे भीतर होते हैं, उनका प्रभाव विधि अनुसार बाहर की ओर फैलता है, पहले हमारे परिवार में व समुदाय में और फिर पूरी दुनिया में उसका प्रभाव होता है। जैसा कि परमहंसजी ने कहा, “अपना सुधार कीजिए, तब आप हज़ारों का सुधार करेंगे।”
योग का एक महत्वपूर्ण लाभ यह है कि ध्यान करने वाले में संपूर्ण मानवता के साथ एकात्म भाव विकसित होता है। धार्मिक मान्यताओं अथवा अविश्वास के बावजूद भी योगाभ्यासी अंततः ईश्वर की सत्ता सभी वस्तुओं में और सभी जीवों में अनुभव करता है।
आज जब यह विश्व प्रौद्योगिक उन्नति के परिणामस्वरूप संकुचित हो चला है और हम एक दूसरे के समीप होते जा रहे हैं, सद्भावना से संपन्न हृदय और मस्तिष्क वाकई हमारे वर्तमान समय की महत्वपूर्ण आवश्यकता बन गए हैं। 1951 में एक साक्षात्कार के दौरान, परमहंसजी से विश्व के लिए अपना संदेश संक्षेप में प्रस्तुत करने के लिए कहा गया। उन्होंने संपूर्ण जाति की एकात्मकता को पहचानने की मौलिक आवश्यकता की बात की — उनके भविष्य सूचक शब्द जो आज भी उतने ही सार्थक हैं जितने तब थे जब पहली बार उनके द्वारा कहे गए :
“इस संसार के मेरे भाइयों और बहनों : कृपया ध्यान दें कि ईश्वर हमारे पिता हैं और वह एक हैं। हम सभी उनकी संतान हैं, और हमें सकारात्मक माध्यमों द्वारा एक-दूसरे की शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, और आध्यात्मिक रूप से सहायता करनी चाहिए, ताकि हम एक संगठित विश्व के आदर्श नागरिक बन सकें। यदि हज़ार व्यक्तियों के किसी समुदाय में से प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को दूसरों से चालाकी, लड़ाई और छल करके आगे बढ़ाने प्रयास करता है, तो प्रत्येक व्यक्ति के नौ सौ निन्यानवे शत्रु होंगे; वहीं दूसरी ओर, यदि प्रत्येक व्यक्ति दूसरों के साथ सहयोग करता है — शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, और आध्यात्मिक रूप से — तो प्रत्येक के नौ सौ निन्यानवे मित्र होंगे। यदि सभी राष्ट्र एक-दूसरे की प्रेमपूर्वक मदद करें, तो पूरी पृथ्वी शांति में जी सकेगी और सभी के कल्याण को बढ़ावा देने के लिए अधिक अवसर होंगे।….
“रेडियो, टेलिविज़न और वायुयान जैसे माध्यमों ने हमें इतना पास ला दिया है, जितना हम पहले कभी न थे। हमें इस विचारधारा को मानना ही पड़ेगा कि एशिया केवल एशियाइयों के लिए, यूरोप केवल यूरोपियनों के लिए और अमेरिका केवल अमेरिकावासियों के लिए ही नहीं है, बल्कि ईश्वर के नेतृत्व में “विश्व संयुक्त राज्य” है जिसमें हर व्यक्ति विश्व का एक आदर्श नागरिक होगा, शरीर, मन और आत्मा की संपूर्णता के तमाम सुअवसरों के संग।
“यह मेरा विश्व को संदेश व आग्रह है।”
एक-दूसरे को एक आदर्श विश्व नागरिक के रूप में बढ़ावा देने के लिए शारीरिक, मानसिक और आत्मिक रूप से सहायता करने का सबसे प्रभावी “रचनात्मक साधन” योग के विश्वव्यापी विज्ञान से पाया जा सकता है।
राजयोग का अष्टांग मार्ग
अपनी स्पष्ट अनुवाद तथा व्याख्या ईश्वर-अर्जुन संवाद : श्रीमद्भगवद्गीता में परमहंस योगानन्दजी ने यह प्रकट किया कि भारत के सर्वाधिक प्रिय योगशास्त्र गीता में, प्रतीकात्मक रूप से समस्त योग-विज्ञान को अभिव्यक्त किया गया है।
ऋषि पतंजलि, जिन्होंने गीता द्वारा योग के सन्देश के संपुटीकरण को पूरी तरह से समझा था, अपने संक्षिप्त परन्तु अत्यंत ज्ञानयुक्त ग्रन्थ “योग सूत्र” में राजयोग पथ के मूल तत्त्व को सरल और पद्धतिबद्ध रूप में प्रस्तुत किया।
परमहंस योगानन्द ने कहा कि पतंजलि द्वारा प्रस्तुत “संक्षिप्त सूक्तियों की एक श्रृंखला, जो ईश्वर साक्षात्कार के अत्यंत व्यापक और गहन विज्ञान का सारगर्भित तत्त्व है — जिसमें आत्मा और अभिन्न परमात्मा के एकाकार होने की विधि इतने सुंदर, स्पष्ट तथा संक्षिप्त रूप में बताई गई है कि विद्वानों की पीढ़ियों ने ‘योग सूत्र’ को योग पर लिखी गई सर्वश्रेष्ठ पुरातन रचना के रूप में स्वीकार किया है।”
पतंजलि की योग पद्धति को अष्टांग पथ के नाम से जाना जाता है, जो आत्म-साक्षात्कार के चरम लक्ष्य की ओर ले जाता है।
- यम (नैतिक आचरण सिद्धांत के वह कार्य जिन्हें करने से व्यक्ति को बचना चाहिए) : दूसरों को कष्ट देना, असत्य, चोरी करना, असंयम (अनियंत्रित यौन आवेग), लालचीपन
- नियम (अपनाये जाने योग्य आध्यात्मिक गुण तथा आचरण) : शरीर और मन की शुद्धता, सभी परिस्थितियों में संतोष, आत्म-नियंत्रण, स्वाध्याय (चिन्तन), और गुरु व ईश्वर के प्रति भक्ति।
- आसन : उचित आसन।
- प्राणायाम : शरीर की सूक्ष्म प्राण-शक्ति को नियंत्रित करना।
- प्रत्याहार : इन्द्रियों को भौतिक जगत से हटाकर चेतना को अन्तर्मुखी करना।
- धारणा : सकेंद्रित एकाग्रता; चित्त को एक विचार अथवा वस्तु पर केन्द्रित करना।
- ध्यान : ईश्वर की अनन्त अभिव्यक्तियों – जैसे सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त परमानन्द, शांति, दिव्य प्रकाश, दिव्य नाद, प्रेम, ज्ञान आदि – में से किसी एक में लीन होना।
- समाधि : वैयक्तिक आत्मा का परमात्मा के साथ एकरूप होने की अधिचेतन अवस्था।
प्राणायाम के उच्चतम अभ्यास में (प्राण शक्ति नियंत्रण, अष्टांग पथ का चौथा चरण) राजयोग की वैज्ञानिक ध्यान प्रविधियाँ शामिल है, जिसका आरंभिक उद्देश्य है चेतना को अंतर्मुखी करना (प्रत्याहार),और अंतिम लक्ष्य है परमात्मा से एकाकार होना (समाधि)।
सामान्यतः प्राणशक्ति स्नायु-तंत्र और इन्द्रियों के माध्यम से सतत् बहिर्मुखी बहती रहती है, जिससे हमें अपने चारों ओर के जगत का बोध होता है। प्राणायाम प्रविधियों द्वारा उसी प्राण-शक्ति को सुषुम्ना व मष्तिष्क में उच्चतर आध्यात्मिक चेतना के केंद्रों की ओर अंतर्मुखी करते हैं ताकि हम अपने अंदर विस्तृत जगत का अनुभव कर सकें।
योगदा सत्संग पाठमाला में वाईएसएस द्वारा सिखाई जाने वाली ध्यान प्रविधियाँ, विशेषकर क्रियायोग, राजयोग प्राणायाम की उच्चतम प्रविधि है। परमहंस योगानन्दजी प्राय: कहते थे कि आत्मा का परमात्मा के परमानंद से पुनर्मिलन कराने वाला यह तीव्रतम मार्ग है।
प्राणायाम के अभ्यास से हम अपना ध्यान जीवन के विकर्षणों से सीधे तौर पर मुक्त कर लेते हैं — शारीरिक ऊर्जा के प्रवाह को नियंत्रित कर, जो अन्यथा हमारी चेतना को बहिर्मुखी रखता है। इस प्रकार से हम अपनी आकुल सोच और व्याकुल भावनाओं को शांत करते हैं, जो हमें सदा परमात्मा से एक अविचल अमर आत्मा रूपी हमारे सच्चे स्वरूप का बोध होने से रोकती हैं।
मानवता की सबसे उन्नत तकनीक
प्रौद्योगिकी हमारे जीवन के अनेक पहलुओं में एक महत्वपूर्ण सहायता है। परन्तु जैसे-जैसे हम अपने विभिन्न डिजिटल उपकरणों के साथ अधिकाधिक समय बिताते हैं, हम प्रायः आंतरिक शांति, सादगी, सद्भाव और आदर की स्वाभाविक भावना से बढ़ते अलगाव को महसूस करते हैं।
सरल शब्दों में कहें तो, प्रौद्योगिकी का अर्थ है किसी वांछित लक्ष्य तक अधिक शीघ्रतापूर्वक पहुँचने के लिए किसी तकनीक का उपयोग करना। आदर्श रूप से, इसके उपयोग से प्रसन्नता, सुरक्षा, और जिस दुनिया में हम रहते हैं, उसके संबंध में खुद की अधिक गहरी समझ प्राप्त करने की हमारी योग्यता में वृद्धि होनी चाहिए।
मानवता की सबसे उन्नत प्रौद्योगिकी राजयोग मार्ग में, योग ध्यान की प्रविधियों, विशेष रूप से क्रियायोग की प्रविधियों के अभ्यास में पाई जा सकती है।
अपनी योगी कथामृत के अध्याय “क्रियायोग विज्ञान,” में परमहंसजी कहते हैं : “योग की अमोघ और क्रमबद्ध फलोत्पादकता की ओर संकेत करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण विधिवत् योगाभ्यास करने वाले योगी की प्रशंसा इन शब्दों में करते हैं : ‘योगी को शरीर पर नियंत्रण करने वाले तपस्वियों, ज्ञान के पथ पर चलने वालों तथा कर्म के पथ पर चलने वालों से भी श्रेष्ठ माना गया है इसलिए मेरे शिष्य अर्जुन, तू योगी बन!’”
“तकनीकी योगी” — अर्थात्, वह सत्याकांक्षी जो योग के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निश्चित प्रविधियों का उपयोग करता है — वास्तव में एक सुनिश्चित विधि का पालन करता है, और जो कि जीवन से ऊर्जा और आनंद को नष्ट नहीं करती है, बल्कि परमानंदमय अनश्वर ईश्वर, या आत्मा, के साथ संपर्क से शरीर और मन की अनंत आपूर्ति तथा कायाकल्प की ओर ले जाती है।
भगवद्गीता में भगवान् कृष्ण के आदर्श शिष्य अर्जुन की भांति, हम क्रियायोग की तकनीक के प्रयोग से ऐसे संतुलन और आंतरिक शांति की स्थिति तक पहुँच सकते हैं, जिससे हमें यह जानने की शान्तचित्तता और विवेक प्राप्त हो जाता है कि आज की प्रौद्योगिकी-निर्भर दुनिया में, संपूर्णता और कल्याण की अपनी स्वाभाविक भावना को खोए बिना कैसे जीना है।
परमहंसजी के शब्दों में, इसकी कुंजी “शांत रूप से सक्रिय और सक्रिय रूप से शांत” होने में निहित है। अपने जीवन में (ऑनलाइन और ऑफलाइन) शांत रूप से सक्रिय होने के लिए, हमें सबसे पहले ध्यान में “सक्रिय रूप से शांत” होना चाहिए — और हमारे समकालीन विश्व की अप्रत्याशित चुनौतियों एवं बढ़ी हुई गति को निर्देशित करने के लिए आवश्यक ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।
राजयोग ध्यान प्रविधियों में, जैसी कि योगदा सत्संग पाठमाला में सिखाई गई हैं, मानवता के पास उपलब्ध सबसे उन्नत प्रौद्योगिकी है, तथा सही अर्थों में एक विजयी जीवन जीने का मार्ग है, जो नित्य-नवीन शांति और आनंद, तथा हमारी सर्वोच्च क्षमताओं की प्राप्ति से पूर्ण है।
अपनी शान्ति का द्वार खोलो और अपनी समस्त गतिविधियों के मन्दिर में प्रशांतता को दबे पाँव प्रवेश करने दो। अपने सभी कर्तव्यों को शान्ति से संतृप्त होकर, स्थिर भाव से करो। अपने हृदय की धड़कन के पीछे, तुम ईश्वर की शान्ति के स्पंदन को अनुभव करोगे। अपने हृदय को ध्यान की शांति से भर लें।
— परमहंस योगानन्द
क्रियायोग एवं भक्ति
परमहंस योगानन्दजी ने स्पष्ट रूप से कहा है : “क्रियायोग एवं भक्ति — यह गणित की तरह कार्य करता है; यह असफल नहीं हो सकता।”
योग और इसकी ध्यान प्रविधियों — जैसी कि क्रियायोग मार्ग पर सिखाई जाती हैं — का अभ्यास प्रारम्भ करने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए, वाईएसएस ईश्वर के उस पहलू के साथ एक गहरा और स्थायी संबंध विकसित करने की आवश्यकता पर बल देता है जो उनके हृदय को सबसे अधिक प्रिय है। आखिरकार, जैसा कि परमहंसजी ने स्पष्ट किया है : “ईश्वर की खोज में एक व्यक्तिगत तत्त्व है, जिसका योग के सम्पूर्ण विज्ञान पर विशेषज्ञता स्थापित करने से अधिक महत्त्व है।” हमें ईश्वर के द्वार तक पहुंचने के लिए योग विज्ञान का अनुसरण करना चाहिए, परन्तु तब ईश्वर द्वारा हमें उस द्वार से भीतर ले जाने के लिए हमारे प्रेम, हमारी व्यक्तिगत ललक की आवश्यकता होती है।
आपको ईश्वर को परमपिता, या जगन्माता, या मित्र, या प्रियतम के रूप में सोचना अच्छा लग सकता है। कुछ लोग ईश्वर को एक सद्गुरु या ईश्वर के अवतार जैसे कि क्राइस्ट या श्रीकृष्ण में प्रकट रूप में देखने का भाव रखते हैं, या वे अनंत प्रेम, आनंद, या ज्ञान जैसे अधिक निराकार पहलू की ओर आकर्षित हो सकते हैं। चाहे ईश्वरत्व की कोई भी छवि आपके लिये सर्वाधिक ह्रुदयस्पर्शी हो, उसे पूरे हृदय से खोजें, इस जागरूकता के साथ कि ईश्वर के प्रति भक्ति और अंततः उनके साथ मिलन में आप एक ऐसी लालसा को पूरा करेंगे जिसे और कुछ भी पूर्ण नहीं कर सकता।
परमहंसजी ने कहा है कि “ईश्वर आपके हृदय की भाषा को सुनते हैं — वह भाषा जो आपके अस्तित्व की गहराईयों से आती है।” उन्होंने सुझाव दिया कि ध्यान प्रविधियों के अभ्यास के बाद, इससे उत्पन्न होने वाली शांति में लीन होने के लिए समय निकालने के बाद, व्यक्ति को बिना किसी औपचारिकता, बिना किसी दिखावे के ईश्वर से बात करनी चाहिए — परन्तु बस, अपने हृदय के प्रेम के साथ। आप जगन्माता को उसके बच्चे के रूप में यह कहते हुए पुकार सकते हैं, “स्वयं को प्रकट करो, स्वयं को प्रकट करो।” या आप अपने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों के बारे में पूरी सच्चाई से मार्गदर्शन माँगते हुए ईश्वरीय प्रज्ञा से प्रश्न भी पूछ सकते हैं।
योग ध्यान का विज्ञान, जो राजयोग शिक्षाओं का आधार है, हमें ईश्वर के साथ सीधे संवाद में लाता है। सर्वाधिक सच्ची ग्रहणशीलता की उस अवस्था में हम अपने अस्तित्व की गहराई से जो कुछ भी संवाद करते हैं, उसमें खुद को सहज होने देते हैं — अपने हृदय, मन, और आत्मा को पूरी तरह से व्यक्तिगत तरीके से वाणी प्रदान करते हैं। स्वाभाविक रूप से, समय के साथ, वह बातचीत प्रेम की सबसे उत्कृष्ट पारस्परिक अभिव्यक्ति में बदल जाएगी। परमहंसजी ने कहा है, “सच्ची भक्ति, ईश्वरानुभूति के समुद्र तल में डूबने वाले साहुल (plummet) की भांति है।”
परमहंसजी के निम्नलिखित शब्दों में, आध्यात्मिक पथ पर चलने वाला यात्री एक गूंजता हुआ तथा सांत्वनादायक वचन सुन सकता है, ईश्वर का चाहे जो भी पहलू उसके लिए सर्वाधिक सम्मोहक क्यों न हो : आप सभी हृदयों के समस्त प्रेम को ईश्वर में प्राप्त कर लेंगे। आपको पूर्णता की प्राप्ति होगी। वह प्रत्येक वस्तु जो संसार आपको देता है और फिर आपको कष्ट और भ्रम में डालते हुए, उसे छीन लेता है, आप ईश्वर में प्रचुर मात्रा में प्राप्त करेंगे, और किसी भी प्रकार के दुःख के परिणाम के बिना।