योग की सार्वभौमिकता — मानवता के लिए एक आशीर्वाद स्त्रोत

वाईएसएस/एसआरएफ़ के अध्यक्ष व आध्यात्मिक प्रमुख स्वामी चिदानन्दजी ने 2017 में भारत में अपने प्रवचन के दौरान कहा कि : “सदियों से भारत ने संपूर्ण मानवता के लिए उच्चतम आध्यात्मिक सत्य का संरक्षण किया है, और यह परमहंसजी के विशेष उपदेशों का ही परिणाम था, कि भारत का सर्वोच्च ज्ञान सर्वप्रथम पश्चिम में प्रसारित हुआ, तदोपरांत संपूर्ण विश्व में और वापिस उनके प्रिय भारत तक वह ज्ञान पहुँचा। उन्होंने भारत के स्वर्ण युग की उच्चतम सभ्यता का पावन वैश्विक आध्यात्मिक सार विशुद्ध रूप में प्रस्तुत किया। वह है योग। यह एक विज्ञान है, कोई धर्म या मत नहीं है; और इसलिए यह आध्यात्मिक विशेषाधिकार — योग का प्रकाश — विश्व-भर में पूरी मानवता के लिए एक आध्यात्मिक आशीर्वाद है।”

परमहंस योगानन्दजी अक्सर इस बात पर जोर देते थे कि योग के अभ्यास व उससे होने वाले उदात्त लाभ को प्राप्त करने के लिए किसी भी विशेष राष्ट्रीयता, जाति, या धर्म का होने की आवश्यकता नहीं है। योग की वास्तविक सार्वभौमिकता इस तथ्य में है कि उसके परिणाम किसी भी व्यक्ति द्वारा प्राप्त किए जा सकते हैं, चाहे वह किसी भी देश का हो, पूर्वी या पश्चिमी।

योग-ध्यान के नियमित अभ्यास के माध्यम से, हम सभी गहरे आनन्द, प्रेम, करुणा, और शांति की एक गहरी अनुभूति कर सकते हैं। और जैसे-जैसे ये परिवर्तन हमारे भीतर होते हैं, उनका प्रभाव विधि अनुसार बाहर की ओर फैलता है, पहले हमारे परिवार में व समुदाय में और फिर पूरी दुनिया में उसका प्रभाव होता है। जैसा कि परमहंसजी ने कहा, “अपना सुधार कीजिए, तब आप हज़ारों का सुधार करेंगे।”

योग का एक महत्वपूर्ण लाभ यह है कि ध्यान करने वाले में संपूर्ण मानवता के साथ एकात्म भाव विकसित होता है। धार्मिक मान्यताओं अथवा अविश्वास के बावजूद भी योगाभ्यासी अंततः ईश्वर की सत्ता सभी वस्तुओं में और सभी जीवों में अनुभव करता है ।

आज जब यह विश्व प्रौद्योगिक उन्नति के परिणामस्वरूप संकुचित हो चला है और हम एक दूसरे के समीप होते जा रहे हैं, सद्‍भावना से संपन्न हृदय और मस्तिष्क वाकई हमारे वर्तमान समय की महत्वपूर्ण आवश्यकता बन गए हैं। 1951 में एक साक्षात्कार के दौरान, परमहंसजी से विश्व के लिए अपना संदेश संक्षेप में प्रस्तुत करने के लिए कहा गया। उन्होंने संपूर्ण जाति की एकात्मकता को पहचानने की मौलिक आवश्यकता की बात की — उनके भविष्य सूचक शब्द जो आज भी उतने ही सार्थक हैं जितने तब थे जब पहली बार उनके द्वारा कहे गए :

“इस संसार के मेरे भाइयों और बहनों : कृपया ध्यान दें कि ईश्वर हमारे पिता हैं और वह एक हैं। हम सभी उनकी संतान हैं, और हमें सकारात्मक माध्यमों द्वारा एक-दूसरे की शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, और आध्यात्मिक रूप से सहायता करनी चाहिए, ताकि हम एक संगठित विश्व के आदर्श नागरिक बन सकें। यदि हज़ार व्यक्तियों के किसी समुदाय में से प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को दूसरों से चालाकी, लड़ाई और छल करके आगे बढ़ाने प्रयास करता है, तो प्रत्येक व्यक्ति के नौ सौ निन्यानवे शत्रु होंगे; वहीं दूसरी ओर, यदि प्रत्येक व्यक्ति दूसरों के साथ सहयोग करता है — शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, और आध्यात्मिक रूप से — तो प्रत्येक के नौ सौ निन्यानवे मित्र होंगे। यदि सभी राष्ट्र एक-दूसरे की प्रेमपूर्वक मदद करें, तो पूरी पृथ्वी शांति में जी सकेगी और सभी के कल्याण को बढ़ावा देने के लिए अधिक अवसर होंगे।…

“रेडियो, टेलिविज़न और वायुयान जैसे माध्यमों ने हमें इतना पास ला दिया है, जितना हम पहले कभी न थे। हमें इस विचारधारा को मानना ही पड़ेगा कि एशिया केवल एशियाइयों के लिए, यूरोप केवल यूरोपियनों के लिए और अमेरिका केवल अमेरिकावासियों के लिए ही नहीं है, बल्कि ईश्वर के नेतृत्व में “विश्व संयुक्त राज्य” है जिसमें हर व्यक्ति विश्व का एक आदर्श नागरिक होगा, शरीर, मन और आत्मा की संपूर्णता के तमाम सुअवसरों के संग।

“यह मेरा विश्व को संदेश व आग्रह है।”

“एक-दूसरे को एक आदर्श विश्व नागरिक के रूप में बढ़ावा देने के लिए शारीरिक, मानसिक और आत्मिक रूप से सहायता करने का सबसे प्रभावी ‘रचनात्मक साधन’ योग के विश्वव्यापी विज्ञान से पाया जा सकता है।”

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