आत्म-प्रेरित प्रतिज्ञापन कैसे आपका जीवन परिवर्तित कर सकते हैं — परमहंस योगानन्द

17 मई, 2024

परिचय :

प्रतिज्ञापन क्या हैं? यह एक मूर्खतापूर्ण प्रश्न लग सकता है, क्योंकि सकारात्मक मानसिकता में स्वयं को केन्द्रित करने और अच्छे स्वास्थ्य की एक स्वस्थ भावना स्थापित करने के लिए प्रतिज्ञापनों का व्यापक रूप से उपयोग और सराहना की जाती है।

लेकिन चूंकि परमहंस योगानन्द — जिन्होंने 1924 में पहली बार अपने व्याख्यानों और कक्षाओं में प्रतिज्ञापनों की शुरुआत की थी — प्रतिज्ञापनों के विषय पर इतना गहन ज्ञान प्रदान करते हैं, कि समय-समय पर यह पूछना शिक्षाप्रद हो सकता है : “वास्तव में प्रतिज्ञापन क्या हैं? उनकी शक्ति का स्रोत क्या है? वे मुझे अपने उच्चतर स्वरूप और शरीर, मन, एवं आत्मा में पूर्णता का अनुभव करने में कहाँ तक सहायता कर सकते हैं?” और शायद सबसे महत्वपूर्ण बात : “मैं उन्हें अपने आध्यात्मिक अभ्यास में और अधिक कैसे शामिल कर सकता हूँ?”

परमहंसजी ने कहा : पारम्परिक तरीके की प्रार्थना की अपेक्षा प्रतिज्ञापन अधिक श्रेष्ठतर होते हैं। वे आत्मा को उसका स्मरण कराते हैं जो पहले से ही उसके पास है; तथा उसका भी जो उसने अपनी विस्मृति के कारण अस्थायी रूप से खो दिया है। प्रतिज्ञापन सर्व-शक्तिमान् सत्य के कथन होते हैं, तथा भिक्षायाचक प्रार्थना से कदापि भिन्न होते हैं। भिखारियों को शायद ही कभी वह प्राप्त हो पाता है जो वे परमपिता से पाना चाहते हैं। परन्तु जिसने ईश्वर-एकाकार द्वारा स्वयं को सुधार लिया है, वह “ईश्वर पुत्र” होने की एक नवीन चेतना में कार्य करता है; प्रतिज्ञापनों के माध्यम से वह रचनात्मक स्पन्दन के सार्वभौमिक नियमों को प्रयोग में ला सकता है तथा उस प्रत्येक वस्तु को प्राप्त कर सकता है जिसकी वह इच्छा रखता है।

परमहंसजी ने बताया है कि प्रतिज्ञापनों के पीछे की शक्ति इस सत्य से आती है कि हममें से प्रत्येक—चाहे हम स्वयं को जितना अलग-थलग महसूस करें या समझें — वास्तव में “ईश्वर के साथ एक अटूट एकत्व” रखता है।

प्रतिज्ञापनों के माध्यम से हम उस एकत्व का अधिकाधिक अनुभव कर सकते हैं, जैसे-जैसे हम धीरे-धीरे अधिचेतनता — आत्मा की सहज, नित्य-आनदमय चेतना — के संपर्क में आते हैं और अपने जीवन में उस दिव्य जागरूकता और आश्वासन को प्रकट करते हैं। इस महीने के न्यूज़लेटर के साथ, हम आशा करते हैं कि आप परमहंसजी के ज्ञान को व्यवहार में लाकर ऐसा कर पाएँगे।

हम आशा करते हैं कि इसके लिए आप नीचे तथा हमारे “प्रतिज्ञापन” पृष्ठ पर दिए गए परमहंसजी के ज्ञान को अभ्यास में ला सकेंगे।

परमहंस योगानन्दजी के प्रवचनों एवं लेखन से :

जिस प्रकार ईश्वर के त्रुटिहीन विचारों ने इस ब्रह्माण्ड का सृजन किया है तथा जिस प्रकार वे इसे सन्तुलित एवं समस्वर बनाए रखते हैं, उसी प्रकार ईश्वर के बच्चों के सद्विचार जब उचित रूप से उच्चारित शब्दों अथवा प्रतिज्ञापनों के रूप में अभिव्यक्त किए जाते हैं तब वे विचार समूचे ब्रह्माण्ड में तथा उच्चारण कर रहे व्यक्ति में भी, तदनुरूप लयबद्ध, आकाशीय स्पन्दनों का संचार करते हैं। परिणामस्वरूप ये रचनात्मक स्पन्दन सभी परिस्थितियों को सामंजस्य में लाते हैं तथा उन शक्तियों को सक्रिय करते हैं जो वांछित परिणाम को मूर्त्त रूप प्रदान करने में आवश्यक हैं।

सच्चाई, दृढ़ विश्वास, आस्था और अन्तर्ज्ञान से भरे शब्द, शक्तिशाली विस्फोटक स्पन्दन-बमों की भाँति होते हैं, जिनका उपयोग कठिनाइयों की चट्टानों को चूर-चूर कर वांछित परिवर्तन उत्पन्न करता है।

चेतन मन द्वारा किए गए प्रतिज्ञापन इतने प्रभावशाली होने चाहिए कि वे अवचेतन मन में प्रवेश कर जाएँ, जो कि परिणामस्वरूप स्वतः ही चेतन मन को प्रभावित करते हैं। शक्तिशाली सचेत प्रतिज्ञापन इस प्रकार अवचेतन मन के माध्यम से मन एवं शरीर पर प्रतिक्रिया करते हैं। और भी अधिक शक्तिशाली प्रतिज्ञापन न केवल अवचेतन, अपितु अधिचेतन मन में भी पहुँच जाते हैं, जो कि चमत्कारी शक्तियों का जादुई भण्डार है।

स्पष्ट अनुभूति और गहरी एकाग्रता के साथ उच्चरित किसी भी शब्द में मूर्त होने की शक्ति होती है।…ध्वनि की अनन्त क्षमताएँ सृजनात्मक शब्द या ओम् से उद्भुत होती हैं। ओम् ही सब अणुशक्तियों के मूल में स्थित विराट् स्पंदनशक्ति है। इस सिद्धांत की पूरी शक्ति का उपयोग तब किया जा सकता है जब ध्यान और अधिचेतन बोध में मन उस अतिसूक्ष्म ओम् स्पंदन के साथ समस्वर हो जाए।

निष्ठा से भरे शब्दों या प्रतिज्ञापनों को समझ, भाव तथा इच्छा के साथ दोहराने पर अवश्य ही सर्वव्यापी ब्रह्माण्डीय स्पन्दनात्मक शक्ति आपकी कठिनाई में सहायता प्रदान करेगी। सभी संशयों को दूर कर, अनन्त विश्वास के साथ उस दिव्य शक्ति से गुहार करें; अन्यथा आपकी एकाग्रता का तीर अपने निशाने से चूक जाएगा।

विचारों के प्रभावी होने से पहले उन्हें भली-भाँति समझ कर उचित रीति से प्रयुक्त करना चाहिए। विचार पहले एक अपरिष्कृत या अपक्व रूप में मनुष्य के मन में प्रवेश करते हैं; गहन चिंतन द्वारा उन्हें आत्मसात् करने की आवश्यकता होती है। आत्म-बल रहित विचार किसी महत्त्व का नहीं है। यही कारण है कि जो व्यक्ति प्रतिज्ञापनों के आधार में निहित सत्य (ईश्वर के साथ मनुष्य के अटूट एकत्व) को समझे बिना उनका उपयोग करते हैं, वे आशा के अनुरूप परिणाम प्राप्त नहीं करते और यह शिकायत करते हैं कि विचारों में उपचारक शक्ति नहीं होती।

पहले ऊँचे स्वर में, फिर फुसफुसाते हुए, तथा अन्त में केवल मानसिक रूप से यह प्रतिज्ञापन कीजिए, “हे परमपिता, आप और मैं एक हैं।” इस प्रतिज्ञापन को तब तक दोहराते जाइए जब तक आप ईश्वर से एकात्मता अनुभव न कर लें, न केवल सचेतन मन की प्रज्ञापूर्ण अनुभूति तथा अवचेतन कल्पना के रूप में ही अपितु एक दृढ़ अधिचेतन विश्वास के रूप में। प्रतिज्ञापन के शब्दों को अंतर्ज्ञानात्मक अनुभूति की प्रज्ञापूर्ण ज्वालाओं में पिघला डालिए। तत्पश्चात उन ज्वलन्त, भावपूर्ण प्रतिज्ञापनों को अपने शान्त, निश्चल, दृढ़ विश्वास के साँचे में उड़ेल दीजिए। इस साँचे में ढलकर आपके कच्चे शब्द उस परम-ईष्ट के श्रीचरणों पर अर्पित करने हेतु एक कान्तिपूर्ण स्वर्णिम हार में परिणत हो जाएँगे।

वाईएसएस ब्लॉग पर भी आप परमहंस योगानन्द द्वारा लिखित “प्रतिज्ञापनों द्वारा अपने अवचेतन मन में सकारात्मक विचारों को स्थापित करना” पढ़ सकते हैं, जो कि 1940 में कैलिफोर्निया के एन्सिनिटस में उनके द्वारा दिए गए व्याख्यान का एक अंश है। इस बारे में अधिक ज्ञान प्राप्त करें कि कैसे प्रतिज्ञापन आपको संदेह और कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने में — और अंततः दिव्य परमानन्द के बोध में — सहायता करने के लिए एक शक्तिशाली उपकरण हो सकते हैं।

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